“ठाकुर साहब”-Ek adab shaksiyat
“ठाकुर साहब” ये title हमारे मुह्ह्ले के ठाकुर
परिवार की चौथी पीड़ी के ठाकुर इन्द्रदेव सिंह जी वकील के तीसरे पुत्ररत्न को उस समय
मुह्ह्ले वालों ने दे दिया था,जब वो मात्र 5 वर्ष के थे। यूं तो ठाकुर इंद्रदेव सिंह जी बेहद ही प्रतिष्ठित नामी और इमानदार
वकील थे और उनके परिवार के सभी पीड़ी के
लोग बेहद ही विनम्र ,इमानदार थे साथ ही रुतबेदार सरकारी और सामाजिक ओहदों पर हुए
थे। “सभी लोग मेहनत से इज्ज़त कमाने में यकीन रखते थे” आपको मेरी ये बात कुछ अजीब
लग सकती है,क्योंकि दुनिया में सभी लोग मेहनत से इज्ज़त कमाते है इसमें क्या खास है
पर ये बात आपको धीरे धीरे समझ में आ जाएगी आईये मिलवाता हूँ “ठाकुर साहब”से ।
वकील साहब के ये पुत्र
रतन बेहद ही शान-ओ-शौकत अपने साथ पोटली में लेकर पैदा हुए थे।कहते हैं “पूत के
पांव पालने में ही दिख जाते हैं”। “ठाकुर साहब” जब छोटे थे तो खेल तो सभी बच्चों
के साथ ही खेलते थे,लेकिन कुछ “शान-ओ-शौकत” से,जैसे सब बच्चे जब क्रिकेट
खेलते,जो की हमारे देश में धर्म का दर्जा रखता है और हर बच्चा सचिन की तरह batsman
या कपिल देव की तरह baller बनना चाहता है,लेकिन हमारे “ठाकुर साहब”का अंदाज़ कुछ
जुदा था,वो अंपायर बनते थे,कारण बताते थे,कि “हम ठाकुर हैं”और फैसले करने के लिए ही
हम बने हैं। जब भी कोई आउट होता तो कोई
अपील करे या न करे पर “ठाकुर साहब” की ऊँगली
बड़ी शान से हवा में उठती।
जब “ठाकुर साहब” की उम्र कुछ बड़ी तो चाल ढाल में रौब दिखना शुरू
हो गया,वो जब गली में चलते तो किसी शहंशाह की तरह दोनों हाथ पीछे बांध कर और गर्दन
को कसकर तानकर ऊपर की तरफ देखकर गली से कुछ यूँ गुजरते थे जैसे अपनी रियासत के
दौरे पर निकले हों।कई बार नीचे न देखने की बजह से उनके पैर गोबर पर भी पड़ जाता था।उनकी जीवन के लेकर अपनी philoshophy
थी,वो कहते थे ही “हम ठाकुर है” किसी के सामने नहीं झुकते,चाहे वो बड़ो के सम्मान
में हो या किसी के घर की छोटी चौखट में अन्दर घुसते हुए सर चौखट से टकरा जाये तब
भी । एक रघुकुल रीत थी “ प्राण जाये पर वचन न जाये” और एक इनकी अनोखी रीत थी “सर
चाहे दीवार से घल जाये पर झुकने न पाए”।
जब “ठाकुर साहब”की पढाई पूरी हुई तो पिताजी
ने पुछा अब आगे किस नौकरी में जाना चाहते हो,तो उन्होंने गर्जना करते हुए भीष्म
प्रतिज्ञा करते हुए बोले-“पिताजी “हम ठाकुर है” ये नौकरी जैसा छोटा काम
हम नहीं करेंगे” ये सुन उनके पिताजी थोडा विचलित हुए पर बेटे की नादानी समझ, दूसरा
प्रस्ताव दिया जो की उनकी बहुत बड़ी भूल थी,उन्होंने कहा कि जीवन यापन के लिए कोई
business ही शुरू कर लो ,तो “ठाकुर साहब” का स्वर और भी प्रचंड हो चूका था,उन्होंने जो
ज़वाब दिया उसके ठाकुर इन्द्रदेव सिंह वकील के सभी कानूनी दाँव-पेंच और धारायें
शिकस्त हो गईं। “ठाकुर साहब” ने
कहा-“business धंधा जैसे काम बनिया लोग करते है,अपने सामान को बेचने के लिए
ग्राहकों को मनाना ये हमारी शान के खिलाफ है”,और हर बार की तरह अंतिम शब्द मतलब अपने
चिरपरिचित अंदाज़ में signature note के साथ “हम ठाकुर है” कहकर ख़त्म की।
“ठाकुर साहब” रोज़ की तरह उठकर चाय का गिलास लेकर अपने बड़े से
आँगन में बैठ जाते हैं अखबार लेकर कुर्सी पर जिसपर उनके पिताजी बरसो पहले बैठते थे।बस
फर्क सिर्फ इतना इतना है,आज “ठाकुर साहब” की उम्र लगभग 50 पार हो गई है,उनके पिताजी
मतलब ठाकुर इन्द्रदेव सिंह जी वकील स्वर्गवासी हो चुके हैं,पिताजी जाते-जाते बहुत
बड़ी हवेली,ज़मीन और जायेदाद छोड़ गए थे।लेकिन “ठाकुर साहब”कुछ करते-धरते तो है नहीं
इसीलिए धीरे धीरे खर्चा-पानी के लिए उसे बेचते गए,अब सिर्फ थोड़ी –सी ज़मीन बची है,जो
की साल भर का गेहूं खाने के लिए देती है,और दो मकान हैं जिनके किराये से खर्चा बड़ी
मुश्किल से चला पाते हैं ।
पिताजी के समय तक रौनक
हुआ करती थी वो जब सुबह बाहर अखबार और चाय लेकर बैठते थे ,तो मुह्ह्ले के चार आदमी
भी आकर मिलकर अपने सुख-चैन सुनते और सुनाते थे और ख़ुशी से जाते थे ।
पर “ठाकुर साहब” तो “ठाकुर साहब” है उसी कुर्सी पर वो भी
बैठते हैं, जिसपर उनके पिताजी बैठते थे पर ज़नाब चार आदमी तो छोड़िये मक्खियाँ भी
मरने को नहीं मिलती “ठाकुर साहब” को और अब
तो उस कुर्सी का एक पैर भी टूट गया है,कुर्सी भी अपने बूडापे की दुहाई देकर रहम की
भीक मांग रही है।
एक बात तो मैं बताना भूल
ही गया “ठाकुर साहब”की
शादी उनके पिताजी जाते जाते कर गए थे और एक चश्मों चिराग भी रौशन है,मतलब “ठाकुर साहब” का एक बेटा भी है ,और “ठाकुर साहब” की पत्नी दिन रात ये कोशिश करती हैं कि उनका
बेटा “ठाकुर साहब”पर ना
जाये हरकतों और स्वाभाव में,मतलब आलसी,अकर्मण्य और निठल्ला न बने।इसीलिए वो परिवार
के पूर्वजों के किस्से सुनाती हैं,लेकिन उनके मेहनत के और संघर्ष के,कि किस तरह वो
अपनी लगन ,मेहनत और विनम्रता के दम पर ठाकुर बने न कि “ठाकुर साहब” के।
और हमारे “ठाकुर साहब”उनके बारे में अब क्या
कहे “ठाकुर साहब” तो आज
भी “कनक न कंडा और सूखे गुंडे”हैं ,मतलब तेल सर के बालों में डालने को नहीं पर
मूंछों पर ताव ज़रूर देते हैं और कहते रहते हैं “हम ठाकुर है”पर करते आज भी कुछ
नहीं।