Thursday 11 April 2019

"चुनावी पंडित"


"चुनावी पंडित"
"चुनाव" लोकतन्त्र का 'पर्व' या यूं कहूँ “महापर्व” कहलाता है,हर नेता,हर दल अपने द्वारा किए गए कार्यों या किए जा सकने वाले कार्यों की गिनती जनता के सामने रखता है,सत्ताधारी और विपक्षी दल एक दूसरे की गलतियों की प्रदर्शनी बड़चड़कर प्रदर्शित करते हैं,टीका टिप्पड़ीयों का दौर शुरू हो गया है,साहब हो भी क्यों न “चुनाव का मौसम” जो आ गया है। किसी के वादों की पोल खुल रही,तो किसी के इरादों की,कहीं भी किसी भी दल के नेता के साथ कुछ भी हो जाये तो एक विश्व ख्यातिप्राप्त अस्त्र का प्रयोग तुरंत उनके द्वारा किया जाने लगता है,की “बदले की कार्यवाही है” या “विपक्षी दल की साजिश है”। समझ नही आता कभी-कभी की क्या ये नेता कभी कोई अपराध करते ही नहीं ? क्या ये घोटाले,घपले,आय से अधिक संपत्ति के मामले अपने आप धरती की गोद से निकल आते है,की इन्हे कोई अपने ऊपर लेने या गोद लेने की जिम्मेवारी ही नही समझता? हंसी आती है सोचकर,खैर इन सब बातों का तो नहीं पता पर इन मौसमों में एक चीज देखने मिल रही कि चुनाव के मौसम में "चुनाव के विशेषज्ञ पंडित" भी अवतरित होते है,जो जीत दिलाने की गारंटी देते हैं इसी बात को सुनकर हमारे शहर के नेताओं ने ऐसे पंडितों के घर दस्तक दी और कहा,महाराज कुछ ऐसा पूजन-पाठ शुरू करिए की इस चुनाव हमारी जीत पक्की हो जाए साथ ही बिपक्षी दल की जमानत जब्त हो जाए,मतलब उन्होने combo pack की मांग की। सभी नेताओं के लिए चुनावी पंडितों की सेना “यज्ञ पूजन-पाठ” में लग गए किसी पंडित की सलाह पर कोई नेताजी किसी ईश्वर को सेट करने लगे,किसी ने किसी और के दर का दरवाजा खटखटाया यज्ञ जाप माथा टेकना शुरू कर दिया गया है,सभी किसी न किसी ईश्वर के सहारे चुनाव की नइयाँ पार लगाने में जुट गए,जिन्होने कभी खुद को इस लोकतन्त्र में ईश्वर समान माना वो सिर्फ चुनावी मौसम में असली ईश्वर की शरण में जाते है।
हमने तो सुना था,कि लोकतन्त्र में असली चाबी या ईश्वर,तो जनता और मतदाता होते है,जो किसी भी दल या नेता की जीत या हार का फैसला उनके द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर अपने मताधिकार का प्रयोग करके करते हैं।  पर शायद ही इन्हे कोई इतनी तब्बज्जो देता है,सिर्फ चुनावी मौसम में कभी मतदाता की याद आती है,ज़्यादातर तो इनकी अनदेखी ही होती है,अभी कुछ दिन पहले कहीं व्यंग पड़ा था,कि चुनाव दो चरणों में होते है,प्रथम चरण में नेता जी जनता के चरणों में और दूसरे में जनता नेताजी के चरणों में होती है।
कभी-कभी लगता है,कि अगर जनता रूपी ईश्वर को यदि वास्तव में सर्वोपरि रखा जाये और 'नेता' या 'जन प्रतिनिधि' वाकई जनता के प्रतिनिधि की परिभाषा के अनूसार कार्य करें,तो कभी किसी नेता को चुनाव जीतने के लिए मंत्र जप का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं,जनता के हितों से जुड़े कर्म का सहारा ही काफी होगा उनके लिए। पर शायद चुनावी पंडित लोकतन्त्र के पर्व में जनता से ज्यादा एहम किरदार रखते हैं,जो किसी भी नेता का भविष्य संवार या बिगाड़ सकते हैं जनता के मत नहीं। पर चुनाव में सारे पत्ते जनता जनार्दन के "मत" के प्रयोग में है,वो जैसा चाहे ऊट करवट लेगा,आप भी अपने "मताधिकार" का उपयोग या कहना चाहूँगा सदउपयोग जरूर करिएगा। वोट जरूर करिएगा और महापर्व के रंग देखिये बहुत देखने मिलेंगे। 

Tuesday 9 April 2019

प्रश्न तो है???

प्रश्न तो है???

कल मैंने जो देखा वो नज़ारा शायद कई सालों के बाद इन आँखों के सामने आया,जिसे देखकर लगा कि ऐसा कुछ भी इस जीवन में अब भी हो रहा या होता है,ये भरोसा-सा खत्म होने लगा था। क्योंकि आज जो कई सालों से अपने आसपास घटित होता देख रहा हूँ,उससे एक बात तो लगने लगी है,कि शायद यही सही है,या यही होता है, और कुछ नहीं। जिस नज़ारे की बात मैं कर रहा हूँ,वो मैंने अपनी यात्रा के दौरान देखा,कल इन आँखों ने दो नन्हें भाइयों को एक हैंडपंप पर नहाते देखा,दोनों आपस में अठखेलियाँ कर रहे थे,दोनों कि उम्र कुछ ज्यादा नही थी,छोटा भाई हक़ के साथ अपने बड़े भाई को परेशान कर रहा था,कभी पानी उस पर डालता तो कभी बाल्टी को गिरा देता,बड़ा भाई जो उससे शायद ज्यादा बड़ा नहीं लग रहा था,उसकी हर शैतानी को खेल समझकर हंस रहा था,बड़ा भाई पानी के मग भर-भर कर अपने छोटे भाई के ऊपर डालकर उसे नहला रहा था और छोटा भाई भी मज़े से खेल रहा था। नहाने के बाद बड़े भाई ने सबसे पहले टॉवल से छोटे भाई को पोछा फिर साफ और सूखे कपड़े पहनाए और खुद भी पहने फिर वहाँ से दोनों हाथ पकड़कर अपने घर की ओर चल दिये। तभी छोटे भाई का पैर ज़रा सा फिसला तो बड़े ने उसे संभाला और आराम से चलने की हिदायत दी,जिसे छोटे ने पूरी तरह माना,कुछ देर बाद ये जोड़ी मेरी आखों के सामने से ओझल हो गई,पर जाते-जाते कई सारे प्रश्न छोड़ गयी,जैसे क्या कल ये भाई जब बड़े होंगे तब भी ऐसे ही रहेंगे ? क्या तब भी छोटा भाई हक़ से शरारतें करेगा ? क्या बड़ा भाई उसकी गलतियों को नज़रअंदाज़ करेगा ? क्या छोटे भाई के लड़खड़ाने पर बड़ा भाई उसका हाथ इसी तरह थामेगा ? और क्या बड़े भाई की समझाइश भरी डांट को छोटा भाई सीख मानकर अनूकरण करेगा। आज अपने परिवार और आस पड़ोस में अकसर देखता हूँ,अहंकार का चश्मा हर आँख पर चड़ा है। भाइयों में  अपने-अपने अहंकार की तुष्टि और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतिस्पर्धा है। क्यों किसी भी बात पर घर के बटबारे हो जाते है ? जहां कभी साथ खेले और बड़े हुये। क्यों शब्दों में तल्खी और नज़रों में घ्रणा का भाव बड़ने लगता है ? जिनमें कभी आदर का भाव था। क्यों आज बड़ा भाई छोटे भाई की किसी भी गलती को नज़रअंदाज़ नहीं कर पाता ? क्यों छोटा भाई बड़े भाई की सीख भरी डांट को अपना अपमान समझने लगता है ? सवाल तो बहुत है,इनके जवाब शायद अलग-अलग लोगों के पास अलग-अलग हों,पर मेरे पास इसका सिर्फ एक ही जवाब है, कि अपने अंदर के बचपन को मरने न दें,अपनों के लिए मन में निश्छल भाव रखिए,प्रेम सदा पवित्र बना रहेगा। आप क्या सोचते हैं,अगर कोई उत्तर हो तो बताइएगा ज़रूर।