Saturday 16 February 2019

"PAUSE-शायद कभी कभी ले लेना चाहिए😀😀😀"

"PAUSE-कभी-कभी ले लेना चाहिए😀😀😀"
ज़िन्दगी में "Pause" कितना जरूरी है,ये मुझे शायद कल अच्छे से समझ आया कल मेरा एक सेमिनार में जाना हुआ।जहां पर एक स्पीकर को सुनने का मौका मिला जिन्होंने मन को साफ,खुश और हल्का रखने का तरीका बताया।ये कोई मेडिकल सेमिनार नही था,बल्कि कैसे अपने विचारों पर कंट्रोल करके मन को हल्का और साफ रखा जा सकता है,उस बात पर सेमिनार था।कि कैसे एक सेकंड का "Pause" आपके जीवन और आसपास होने वाली घटनाओं को बदल सकती हैं,मुझे वो बातें वहां सुनकर दैनिक जीवन का एक घटनाक्रम याद आया , ये दृश्य हमारे घरों में कभी न कभी घटित होता ही होगा,तो आइये देखते हैं,एक पतिदेव हैं जिन्हें सुबह आफिस जाने की जल्दी है,और वो आज लेट हो चुके हैं,घड़ी की तरफ देखते हुए अपनी पत्नी को चिल्ला कर आवाज़ देते हैं,क्यों अभी तक चाय भी नही बन पाई तुम्हारी,आज चाय नसीब होगी कि नही ? पत्नी जल्दी से आकर उन्हें चाय का कप टेबल पर रख देती है,पतिदेव जल्दी-जल्दी एक चुस्की चाय की लेते हैं और तुरंत सड़ा सा मुँह बनाकर पत्नी से कहते हैं,एक काम भी ढंग से नही होता तुमसे,कैसी वाहियाद चाय बनाई है तुमने,पत्नी कहती भी है कि दूसरी बना दूं,पर पतिदेव पहले ही लेट थे,तो चिड़चिड़ाते हुए कहते हैं की नही चाहिए,और आफिस के लिए निकल जाते हैं,उसी समय कामवाली बाई आती है,वो सिर्फ आज 5 मिनट देरी से आई पत्नी जी का पारा जो कि पतिदेव की बातों से गर्म था और भी चढ़ जाता है,और वो कामवाली की बात बिना सुने उसे खरीखोटी सुनाना शुरू कर देती है, कि तुम कभी टाइम से नही आ सकती,सुबह-सुबह मालूम है,काम कितना ज्यादा होता है वगेरह वगेरह.....
ये सब सुन कामवाली का दिमाग भी गर्म हो जाता है,वह बेमन से सारा काम निपटाती है,और जैसे ही बिल्डिंग से बाहर जाने को होती है,देखती है कि वॉचमैन जो कि उम्रदराज आदमी है की आंख लगी है,कामवाली पत्नी जी का सारा गुस्सा उस वॉचमैन पर उतारना शुरू कर देती है तुम लोगों का बढ़िया है,ड्यूटी पर भी सोते रहते हो, हम लोगों को काम करना पड़ता है,और न जाने क्या-क्या? जिसे सुन बिल्डिंग के कुछ बिल्कुल फालतू और पंचायती लोग वहां आकर सुर में सुर मिलाकर कहने लगते हैं,कि हां ये वॉचमैन तो यही करता है,अगली मीटिंग में ये मुददा को डिसकस करेंगे,इसे निकाल देंगे जैसी बातें शुरू।
अब जरा इसी सीन को दूसरे नज़र से देखते हैं,सुबह हुई पतिजी लेट हो गए हैं,जल्दी-जल्दी जूते पहनते हुए पत्नी को प्यार भरी आवाज़ देते है,सुनो क्या चाय तैयार हो गई? पत्नी मुस्कुराते हुए चाय का कप देती है,पति जी जैसे ही एक चुस्की लेते हैं,चाय खराब बनी है,जान जाते हैं,पर कुछ कहते नही,पत्नी को भी साथ चाय पीने का बोलते है, पत्नी भी ख़ुशी-ख़ुशी चाय की एक चुस्की लेती है,समझ जाती है चाय खराब बनी है और तुंरत पति से कहती है कि आप ये चाय मत पीजिये, ये अच्छी नही बनी मैं दूसरी बना लेती हूँ,पति उसे रोकता है,कोई बात नही,चाय मैं बाहर पी लूंगा,हो जाता है कभी-कभी,तुम परेशान मत हो,मैं आफिस के लिए निकलता हूँ।दोनों एक दूसरे को अच्छे मन से विदा करते हैं,उसी समय कामवाली जो 5 मिनिट देरी से आई नज़र बचाते हुए की पत्नीजी गुस्सा करेंगी,घर के अंदर प्रवेश करती है,पत्नीजी जिनका मूड अच्छा है, उससे सामान्य से प्रश्न करती है,क्या बात है?आज देर हो गयी आने में,तो कामवाली बताती है कि आज बेटे की तबियत ठीक नही थी,तो देर हो गयी,तुरंत पत्नी जी कहती है,अरे तो तुम जाओ वापस अपने बेटे को डॉक्टर को दिखाओ काम तो होता रहेगा,आज मैं कर लूंगी,साथ ही 50 रुपये भी देती है,कि जाते हुए फल ले जाना।कामवाली बाई फिर भी इस व्यवहार से खुश होकर काम को जल्दी से पूरा करती है,और बिल्डिंग से नीचे आती है,देखती है कि वॉचमैन जो कि उम्रदराज आदमी है शायद थकान की वजह से कुर्सी पर बैठे-बैठे उसकी आंख लग गयी,उसके पास जाती है,और धीरे से उन्हें उठाती है कि काका उठो ड्यूटी पर सोना नही,अभी कोई देख लेगा तो टोकेगा ,और उसकी कुशल छेम लेकर वहां से अपने घर निकल जाती है।
दोनों ही सीन में हर व्यक्ति द्वारा प्रतिक्रिया देने से पहले सिर्फ एक या दो सेकंड का "Pause" लिया गया,अपने विचारों के आवेग को दिशा देने के लिए।पहले दृश्य में पतिदेव बिना सब्र किये पत्नी पर बरसे तो वहाँ से एक के एक बातों के बिगड़ने की चैन शुरू हो गयी और ना जाने कितने लोग उससे तनावग्रस्त और दुखी हुए। वहीं दूसरे दृश्य में पतिदेव द्वारा मन में एक या 2 सेकंड का "Pause" देकर विचारों को कहने से पत्नी, कामवाली से लेकर वॉचमैन तक स्तिथियाँ वही थी,पर उन पर होने वाली प्रतिक्रिया कितनी बदल गयी। ऐसे घटनाक्रम रोज़मर्रा के जीवन में सबके साथ घटित होते ही रहते हैं। किसी भी स्तिथि पर प्रतिक्रिया देते वक्त अगर उस पर ज़रा सा "Pause" देकर अगर विचार कर लिया जाए तो बहुत कुछ बदल सकता है। घटनाक्रम के बाद किसी भी प्रकार का बोझ मन पर, दिमाग पर नही रहता। क्योंकि किसी भी तनावपूर्ण घटना के बाद वो हमारे मन पर असर करती है हमारा मन उसी बात के बारे में लगा रहता है कि उसने मुझसे ये कहा वो कहा मैंने उसे ये कह दिया वगैरह-वगैरह यही चलता रहता है। जिससे आपका मन कुछ और जरूरी बातों को गुणवत्ता पूर्ण तरीके से पूरा नहीं कर पाता जिससे हमारा जीवन,कार्यस्थल पर कार्यशैली बहुत ही ज्यादा प्रभावित होती है।साथ ही हमारा स्वभाव भी खराब और कभी तो चिड़चिड़ा हो जाता है।तो आप भी कभी-कभी मन में विचारों को ज़रा "Pause" देकर देखिये, शायद उससे होने वाली घटनाओं के परिणाम बदल जाये और मन पर कोई बोझ न रहे साथ ही मन हल्का हो जाये।

Wednesday 6 February 2019

"असर-आज नही तो कल ज़रूर होगा "

    "असर-आज नही तो कल ज़रूर होगा "
आज तक सिर्फ सुना था, कि "जैसी संगत तैसा असर",लेकिन पिछले दिनों मेरे आंखों के सामने एक वाक़िया घटित हुआ,जिसने इस कहावत को मेरे लिए प्रमाणित कर सही साबित किया,बात कुछ दिन पुरानी है, मेरा एक परिचित के कार्यक्रम में जाना हुआ,साथ में मेरे एक मित्र भी थे जिन्हें पान,तम्बाकू और गुटका जैसे उनके अनुसार जीवनदायीं, अमृत के समान लगने वाले पदार्थों का सेवन अतिप्रिय है।इस बात पर कई बार हम दोनों के बीच बाद विवाद भी हुआ कि इनका सेवन करना सही है,या नही,मैंने एक मित्र होने के नाते कई बार उन्हें इसे छोड़ने को कहा पर वो न माने।कई बार उन्हें सामाजिक स्थलों पर इसे न खाकर जाने या न खड़े होने को कहा,तो बहानों की लंबी लाइन सुना देते। मैंने उन्हें कई बार टोका की सामाजिक स्थलों पर गुटखा का सेवन कर जाना और वहीं कहीं पर भी थूक देना आपकी प्रतिष्ठा को शोभा नही देता,और सामान्य तौर पर अति अशोभनीय कृत्य लगता है।पर वो मुझे प्रवचन न देने का कहकर बात बदल देते थे,पर उस दिन जब हम दोनों साथ उस कार्यक्रम में शिरकत करने गए तो उन्होंने प्रवेश से पहले अपने चिर-परिचित अंदाज़ में अपना पसंदीदा गुटखा निकाला और काफी heroism के अंदाज में अपने मुँह में उसे प्रवेश कराया,मैंने अपने मित्र होने का फर्ज फिर अदा करते हुए उन्हें ऐसा करने से रोका की सार्वजनिक क्षेत्र में इस तरह गुटखा,तम्बाकू का सेवन गलत है,कानूनन भी और सामाजिक सरोकार से भी,और अशोभनीय लगता है।पर उन्होंने मेरी बात इस बार भी अनसुनी कर दी। मैं भी हार मान कार्यक्रम स्थल की ओर बढ़ने में ही भलाई समझी और उनके साथ में अंदर चला गया। अंदर जाने पर कार्यक्रम बहुत अच्छा और भव्य था जहां लगभग सभी लोग सभ्य ही दिख रहे थे,जो अपने परिवारजनों, या मित्रों के साथ वहां आये हुए थे। जिनके मुँह में न तो गुटका था,न वो किसी प्रकार की तम्बाकू या नशीले पदार्थों का सेवन कर रहे थे।जिन्हें देखकर मेरे मित्र थोड़ी ही देर में थोड़ा असहज होने लगे,कि अरे यहां तो मेरे जैसा तो कोई भी नही कर रहा।उनकी असहजता बेचैनी में तब बदल गई जब उन्हें कहीं भी कोई गंदा कोना अपने मुँह में भरी हुई  भारी भरकम अद्वितीय गुटके की पीक को थूकने को नही मिल रहा था।क्योंकि सभी ओर साफ सफाई थी,कार्यक्रम स्थलका फर्श और कोने भी साफ और चमक रहे थे,साथ ही वहां आये हुए लोगों के चेहरे भी। जिसे देख कर मेरे मित्र को अपने इस क्रिया पर शायद पहली बार आत्मगिलानी का अनुभव हुआ और अगले ही पल उन्होंने मुझसे कहा कि उनका यह कार्य वाकई गलत है,कि वो सार्वजनिक जगहों पर इस तरह गुटके का सेवन करते है,साथ ही पीक को थूक-थूक कर यहां वहां गंदगी फैलाते है।ये सुन मुझे एहसास हुआ कि वाकई आपके द्वारा किये जाने वाले कार्यों और मिलने वाली प्रेरणा में आपके आसपास के माहौल का एहम योगदान है।जैसा वातावरण हमारे आसपास होगा वैसा ही हमारे आचरण व्यवहार में प्रदर्शित होगा।और मेरा विश्वास इस बात पर और भी ज्यादा बड़ा दिया की अगर आप अपने सही सोच और कार्य पर अडिग हैं,तो परवाह मत करिये आगे बढ़िए,कभी न कभी कहीं न कहीं लोग अपने बुरे विचार छोड़,आपके साथ सही रास्ते पर आगे बढ़ने लगेंगे।