Tuesday 13 November 2018

"कुछ दिए इनके लिए"

"कुछ दिए इनके लिए"
दान,दक्षिणा ये शब्द बहुत सालों से कानों ने सुने और निर्वाह करते हुए लोगों को भी देखा और खुद भी करता रहा। पर इस साल दीवाली पर कुछ लोगों को कुछ ऐसा काम करते देखा जो देखने में तो आम दान-दक्षिणा वाली पद्धति का हिस्सा लग रहा था,पर जब उसके बारे में जाना तो वो वाकई में उससे कहीं अधिक था।और इस बात ने मुझे नई प्रेरणा दी और अंतरात्मा तक पहुंच कर कुछ अजीब सा सुकून दिया।जो लगा कि आपसे भी कहूँ और शायद इस अद्भुत पहल का एहसास शायद आप भी करना चाहें।
शहर में कुछ युवा सदस्यों का एक ग्रुप है ,जो कभी कभार अपने रूटीन में से समय निकाल कर कुछ-कुछ लोगों की अलग-अलग तरीके से मदद करते रहते हैं।पर खास बात इसमें नहीं है, क्योंकि ख़ुदा की इस जन्नत नुमा ज़मीं पर हर शहर में ऐसे कई ग्रुप काम कर रहे हैं,जो लोगों की तकलीफें और गम बांट रहे हैं।पर जो वो उस दिन कर रहे थे वो ज़रूर कुछ खास था।
मेरी मुलाकात ग्रुप के कुछ सदस्यों से हुई जो हर दीवाली अपने साथियों के साथ मिलकर शहर के कुछ जगहों पर जाकर,जहां ज़रूरतमंद परिवार रहते हैं,उन्हें एक पैकेट दीवाली की शुभकामनाओं भरे संदेश के साथ मुस्कुराते हुए देते हैं,ये पैकेट अपने आप में कुछ खास होता हैं इसमें उस घर के लिए 11दीपक उनके लिए तेल और रुई की बाती,पूजन के लिए लक्ष्मी-गणेश जी की तस्वीर और साथ में छोटी सी चिट्ठी होती है,जिसमें परिवार के लिए एक छोटा सा संदेश होता है,जिसमें बड़े ही आदर,सम्मान और प्यारे शब्दों में लिखा होता है "कि आदरणीय ये कोई दान नहीं बस एक छोटा सा उपहार है,ताकि इस दिवाली दीपकों की रोशनी हर घर में और भी ज्यादा होकर त्योहार को रोशन कर दे।" उन सभी योवाओं की इस पहल को देखकर लगा मानो सही मायने में दिवाली पर रोशनी को बिखेरने की ये कोशिश सराहनीय है और सच्ची भी। इस ग्रुप के सदस्यों ने बताया कि ये कोशिश कुछ 4 साल पहले 51 घरों को रोशन करने से शुरू हुई थी,और आज ये लगभग 200 से भी ज्यादा घरोंदों को रोशन कर रही है हर दीवाली। ग्रुप के सदस्य जो आज अलग-अलग शहरों में भी हैं,वो वहां भी इसी कोशिश में है कि हर दीवाली उनके आसपास किसी भी घरोंदे को अंधेरे की चादर न ढक पाए रोशनी की ये कतार हर घर को रोशन करे।
इस ग्रुप के सभी सदस्यों और उनकी इस रोशनी बिखेरने की अनुपम पहल को मेरा सादर नमन।
और इसी से प्रेरणा लेकर मैंने भी "कुछ दिए इनके लिए" पहल में अपनी ओर से रोशनी की निश्छल भेंट जरूरतमंद परिवार को अर्पित की।आप भी ज़रूर करें अद्धभुत आनन्द की प्राप्ति होती है करियेगा ज़रूर।

Monday 17 September 2018

उत्सव मौका है कुछ सीखने का.....

             उत्सव मौका हैं कुछ सीखने का.....
जीवन में उत्सवों का बहुत महत्व है,ये हमें मौका देते है,आपस में जुड़ने का,मिलने का,जानने का और बहुत कुछ सीखने का भी। मैं ये नही जानता,कि जिस बात का  ज़िक्र मैं आज आपसे करने जा रहा हूँ,वो पहले किसी ने आपसे नही कही होगी या आपने इसे ध्यान नही दिया होगा,पर आज जो मैंने देखा और महसूस किया वो अनुभव आपके साथ बॉटने का दिल किया,सो कह रहा हूँ,मैं वर्तमान में जिस शहर में रहता हूँ,वहां मुझे आये हुए ज्यादा समय नही हुआ है, क्योंकि मेरी नॉकरी के सिलसिले में मुझे यहाँ आये कुछ ही महीने हुए है,जिस जगह में रहता हूँ,वो उस शहर के काफी पॉश इलाके में गिना जाता है,और जहां काफी उच्च वर्ग के तथाकथित पढे-लिखे और समृद्धि लोग रहते हैं,मैं यहां शहर का नाम इसलिये नहीं बताना चाहता,क्योंकि ये बात किसी एक गली,मुहल्ले,कॉलोनी या शहर की नही है,ये सब जगह समान अवस्था में मौजूद है,शायद नाम लिखूँ तो किसी शहर की पहचान बुरा मान जाए,खैर छोड़िये,मैं जिस मल्टीस्टोरी बिल्डिंग में रहता हूँ,वहाँ पिछले 8-9 महीनों में मैंने ज्यादा चहल-पहल नहीं देखी । लोगों को ज्यादा एक दूसरे से बात करते भी नही सुना,सब अपने आप में अपनी दुनिया में मस्त हों ऐसा ही दिखता है। बिल्डिंग के बच्चों को भी ज्यादा खेलते हुए या आपस में बात करते या कोई गतिविधि करते नही देखा अमूमन शांति ही देखी। आजकल सब जगह त्यौहार का माहौल बना हुआ है,चारों तरफ गणेश उत्सव की रौनक है,शहर में कई जगह बड़े-बड़े उत्सव चल रहे हैं।पिछले कुछ महीनों में मैंने अपने बिल्डिंग में ऐसे किसी पर्व पर कोई सामूहिक उत्सव नही देखा था।पर आज शाम जब गाड़ी पार्किंग में रख रहा था,तो देखा कि मेरी सोसायटी के बच्चे गणेश उत्सव की तैयारियों में लगे थे,जो बच्चे कभी मुझे वहां कभी खेलते नही दिखते थे,कभी आपस में ज्यादा बात करते नही दिखते थे।वो आज एक टीम की तरह जोश के साथ सारे काम कर रहे थे। उनका ग्रुप बिना किसी मैनेजमेंट ट्रेनिंग लिए भी एक कॉरपोरेट जगत की टीम की तरह काम कर रहा था। जिसमें हर किसी ने अपना काम बांट रखा था,जो बच्चा उन सभी में उम्र में बड़ा था,वो उन सभी के बीच एक लीडर की भूमिका निभा रहा था,और सभी छोटे बच्चों को सही तरह से काम  करने का निर्देशन दे रहा था,दो बच्चों ने साज सजावट का,तो दो ने चंदा इकट्ठा करने का जिम्मा,तो 3 बच्चों ने साफ सफाई और प्रशाद का जिम्मा लेकर काम आपस में बांट लिए थे,और शाम होते-होते उन सभी ने अपने-अपने काम पूरी ईमानदारी और उल्लास के साथ पूरे कर लिए थे। और सबसे बड़ी बात जो इन बच्चों ने दिखाई वो ये कि सोसाइटी के नोटिस बोर्ड पर उस बाल सेना ने एक ओर चंदे से इकट्ठा की गई राशि व सारे खर्चे का हिसाब लिख कर लगा दिया था।और दूसरी ओर अगले 10 दिन के गणेश उत्सव में आयोजित होने वाले कार्यक्रम व आरती की समय सारणी को भी विस्तार से लिख कर लगा दिया था,ताकि सभी को हर प्रकार की जानकारी मिल जाये।
इस पूरे घटनाक्रम का ज़िक्र आज आपके साथ करने का का एक मकसद सिर्फ ये है कि आज इस नए परिवेश में हम बच्चों को नए-नए इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स,मोबाइल फोन, लैपटॉप देकर अपने आपको एक अच्छे और सक्षम पेरेंट्स  होने का मेडल दे देते हैं,और कहीं न कहीं बच्चों को हर काम को सीखने या सिखाने के लिए कोचिंग को ही एक मात्र और अंतिम विकल्प के रूप में देखते हैं,जबकि हमारे आसपास के रोजमर्रा के जीवन और दैनिक दिनचर्या में ही देखे और अगर हम नन्हे बच्चों को भी काम करने या एक साथ मिलकर की मकसद को अंजाम देने का मौका दें,तो कहीं न कहीं वो अनजाने में ही सही एक अच्छे ग्रुप की तरह काम करने का गुण सीख जाते हैं,कि कैसे एक टीम का हिस्सा बनकर काम किया जाता है,और हर सदस्य अपनी खूबियों के हिसाब से काम करता है,और एक टीम में उस हर सदस्य और उसकी खूबी की इज्जत करनी चाहिए। और ये सब बिना किसी कोचिंग क्लास में जाये भी वो आसानी से सीख जाते हैं।जैसे इस वाकये में इन बच्चों ने कर दिखाया कि कैसे एक उत्सव का सफल मैनेजमेंट किया जा सकता है।उत्सव हमें बहुत कुछ सीखने का मौका देते हैं,तो आपने इन उत्सवों से क्या सीखा या अपने बच्चों को क्या सिखाने वाले हैं???जवाब जरूर दीजियेगा अगर आपके पास हो तो ,,,,,,

Friday 17 August 2018

"उम्मीद वाला पेड़"

"उम्मीद वाला पेड़"
     
मेरा एग्जाम ठीक से नही हुआ मैं फेल हो जाऊंगा,मेरी नौकरी चली गयी मेरा क्या होगा,मेरा बिज़नेस में घाटा हो गया सब कुछ ख़त्म हो गया।अरे भाई इतना जल्दी फ़ैसला सुना दिया ......इंसान जीवन में कई बार छोटी छोटी बातों और असफलताओ से डर जाते हैं,टूट जाते हैं ज़रा-ज़रा सी बात में, नाउम्मीद हो जाते हैं,कहने लगते है,कि सब खत्म हो गया, मैं हार गया अब कुछ नहीं हो सकता वगैरह-वगैरह-वगैरह और पता नहीं क्या क्या....
कभी उम्मीद वाले पेड़ को देखा है,कभी उसकी छाँव में खड़े हुए हैं,नहीं तो आइये मिलवाता हूँ "उम्मीद वाले पेड़ से"।
रोज़ मेरे घर आने जाने के रास्ते में एक मोड़ पड़ा करता है, जिसके पास एक पेड़ लगा था बहुत  विशाल तो नही पर फिर भी इतना तो हराभरा और घना था,कि किसी व्यक्ति को गर्मी की तपती धूप में छांव का आसरा दे देता था और तेज बरसात में उसने कई बार लोगों को भीगने से बचाया है।कहने को वो सिर्फ एक पेड़ था,पर जब-तब कई बार लोगों को मुसीबत में राहत की सांस लेने में मदद और धीरज के कुछ पल ज़रूर दे देता था।
पिछले दिनों सड़क पर तथाकथित "आधुनिकीकरण" की बयार चली कुछ छूटपुट परिवर्तन किए जा रहे थे। उस परिवर्तन का पहला शिकार यह पेड़ ही हुआ क्योंकि बिजली के तार की लाइन डाली जानी थी जो कि थोड़ी घुमाकर भी डाली जा सकती थी,लेकिन नही साहब ऐसा कष्ट कैसे किया जाता,सोचा होगा ये पेड़ कौन सा लड़ाई करने लगेगा सो काट दिया गया।अगले दिन जब रोज़ की तरह वहां से गुजरा तो उस पेड़ पर पत्तों की जगह मुझे सिर्फ एक सीधा निरीह तना दिखाई दिया,जिस पर सिर्फ 2-3, पत्ते बचे थे। जिसे देख ऐसा लग रहा था कि मानो किसी की मौत हो गई हो और आसपास का सूनापन उसके मातम को दिखा रहा था।ये सब देखकर मन बहुत दुखी हुआ में वहाँ अपनी गाड़ी से कुछ पल रुका जैसे मानो मन उस पेड़ को श्रद्धांजलि दे रहा हो इस विचार के साथ कि अब ये पेड़ दोबारा कभी नहीं बढ़ पाएगा और न ही इसकी शाखों पर फिर कभी हरे पत्ते आ पाएंगे,न फिर ये कभी किसी को छाँव का आसरा दे पाएंगे।कुछ पल मौन के समर्पित कर मैं वहां से अपने काम पर निकल गया।रोज़ का सिलसिला जारी रहा आना-जाना नियमित चलता रहा।कुछ दिनों बाद मैनें देखा कि उस सूखे निरीह तने जिसके ऊपर सिर्फ 2-3 पत्ते शेष रह गए थे,धीरे-धीरे बढ़ने लगा था और उस पर पत्तों की कुछ नई शाखें आने लगी थी।और अगले कुछ दिनों में मैंने देखा कि उस पेड़ में शाखें बढ़ने लगी और कुछ ही महीनों में पेड़ अपने पुराने रूप को पाने के लिए आतुर हो बढने लगा है, मानो इस पुख्ता भरोसे को दर्शाते हुए कह रहा हो कि मैं अभी खत्म नहीं हुआ बस कुछ पल के लिए रुक गया था,किसी बजह से,पर मेरा अस्तित्व खत्म नहीं हुआ,न उम्मीद खत्म हुई है,मैं फिर से खड़ा होने के लिए आशान्वित हूँ,गिर कर फिर शान से खड़ा होउंगा जवान होकर और लोगों को बहुत कुछ देना बाकी है,मुझमें जान अभी बाकी है,उससे ज्यादा विश्वास अभी बाकी है।
इस छोटे से वाकये ने मुझे एक बहुत बड़ी सीख दी हम इंसान जीवन में कई बार छोटी छोटी बातों और असफलताओं से डर जाते हैं,टूट जाते हैं ज़रा सी बात में नाउम्मीद हो जाते हैं,और कहने लगते है कि सब खत्म हो गया,मैं हार गया अब कुछ नहीं हो सकता वगैरह वगैरह वगैरह और पता नहीं क्या क्या....
पर इस पेड़ को फिर से खड़े होने और हरीयाली देने की इक्षाशक्ति ने उसे बल दिया और फिर से वह अपने पुराने स्वरूप में और ज्यादा मजबूत और नई टहनियों के साथ खूबसूरती से खड़ा होने को तैयार है,इस बात ने मुझे हमेशा सकारात्मक रूप से प्रयास करने और कभी उम्मीद न छोड़ने को सीख दी।कि हार जैसा कुछ नहीं होता वो सिर्फ एक नया मौका है,नई ऊर्जा के साथ काम को और बेहतर तरीके से करने और उससे ज्यादा लाभ कमाने का।तो ढूंढ़ लीजिये कहीं न कहीं "उम्मीद वाला पेड़" आपके आस पास ही होगा बस नज़रिया आपका है जैसे भी इसे देखे।

Wednesday 4 July 2018

"पेड़,पेड़ पर नही उगते लगाने पड़ते हैं"

     "पेड़,पेड़ पर नही उगते लगाने पड़ते हैं"

पिछले दिनों एक शॉपिंग में माल में जाना हुआ खरीददारी के दौरान एक जोर की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी देखा तो एक माँ अपने बच्चे को डांट रही थी "जब खाना नहीं था तो लिया क्यों,तुम्हे पता नहीं कितना महँगा था ये,ऐसे ही बर्बाद करवा दिया,पैसे पेड़ पर नहीं उगते जो तोड़े और ले आये मेहनत करनी पड़ती है,समझे तुम्हे इसकी कीमत समझनी चाहिए" उनके इन्हीं शब्दों ने मुझे विचार करने पर मजबूर कर दिया,कि क्या हम वाकई फ्री में मिलने वाली चीजों की कद्र नहीं करते।कुदरत की दी हुई नेमत ही हैं,जो हमें उसकी हर एक चीज बड़ी ही आसानी से मुफ़्त में मिल जाती है कि हमें उसका मोल समझ नहीं आता,चाहे वो बारिश का पानी हो या कुदरत की हरियाली,मुफ्त में मिलने वाली ऑक्सीजन हो या ठंड के मौसम में मिलने वाली धूप की राहत,गर्मियों में उसी धूप की तपिस से बचाने के लिए पेड़ों से मिलने वाली छांव हो।सब "मुफ्त मुफ्त और बिल्कुल मुफ्त" किसी चीज का कोई पैसा नही,कोई GST नही,कोई टैक्स नही,कोई टिकट नही। है ना अलबेली बात इस कुदरत की,पर शायद यही अलबेलापन इस कुदरत के लिए श्राप बनता जा रहा है।आप,मैंऔर हम सब इस कुदरत की इज़्ज़त करना भूलते जा रहे हैं।जगह चाहिए या जरूरत पूरी करनी हो,पेड़ों को हम काट रहे हैं पर लगाना भूल रहे हैं,किताबों में बच्चे पेड़ों को बढ़ते तो देख रहे हैं,पर असल में कैसे ये सब हो जाता है,ये हम उन्हें नहीं दिखा रहे हैं।आज की पीढ़ी के बच्चों में से शायद कुछ ही प्रतिशत होंगे,जिन्होंने पेड़ से तोड़ कर आम या कोई फल खाया होगा।उनके लिये तो फलों का मौसम उस फल के बाजार में आने के बाद ही शुरू होता है,और जाते ही खत्म। आज जरूरत है तो हम सबको इस बेशुमार दौलत को सहेजने की ताकि आगे आने वाली पीढ़ी इसे देख सके, महसूस कर सके और उतना ही आनंद उठा सके,जितना आपके पहले वाली पीढ़ी और आज आप उठा रहे हैं।आज आपकी गलती की सज़ा आने वाले कल को भुगतनी पड़ेगी,अगर आप प्रकृति के सारे रंगों का दोहन आज ही कर लेंगे,तो उनके पास प्रकृति के पटल पर देखने के लिए रंग ही कहाँ बचेंगे।और क्या हो जब प्रकृति अपनी संपदा आप पर मुफ्त में लुटाने की जगह उसकी कीमत वसूलना शुरू कर दे,तब आप जुमलों में भी किसी से ये नही कह पाएंगे कि "पैसे पेड़ पर नहीं उगते जो मुफ्त में तोड़ लाये"।आज से ही शुरुआत करें,आप जहां भी रहते है वहां अपने आसपास कम से कम एक पेड़ ज़रूर लगाएं और उसे सहेजे भी,अपने बच्चों को समझाये की वो भी हर साल कम से कम एक पेड़ ज़रूर लगाएं आने वाले कल के लिए,वरना वो दिन दूर नहीं जब ये सब देखने के लिए भी टिकट लेना पड़ेगा।

Tuesday 12 June 2018

"ध्येय ya श्रेय"


          "ध्येय yaश्रेय"


ये दो शब्द जिनके मायने तो बहुत जुदा है,पर अगर देखा जाए तो ये बहुत हद तक किसी के तररक्की की राह कैसी होगी और कहां तक जाएगी ये तय कर सकते हैं।एक टीम जब बनती है तो ज्यादातर लोग एक गलती करते हैं वो ये की वे अपनी टीम के सदस्यों का चुनाव उनके गुणों के आधार पर या सफल होने की भूख को देखकर नही बल्कि अपनी अनुकूलता के आधार पर करते है।जहां कई बार ऐसी टीम का भविष्य और उसकी सफलता का दृश्य निर्भर सिर्फ इस बात पर करता है कि वह टीम जिस लक्ष्य को पाने का सपना देख रही है उस तक पहुंचने के लिए होने वाले या किये जाने वाले प्रयासों में टीम के लोगों का बर्ताव कैसा है क्योंकि यहां प्रयास सफल होंगे या नही वो इस सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं करते की प्रयास सही दिशा में हो रहा है या कितना किया जा रहा है।साथ साथ इस बात पर भी निर्भर करता है कि टीम के सदस्यों की अपेक्षा कैसी और काम के प्रति व्यवहार कैसा है क्या वो हर प्रयास को लक्ष्य तक सफलता के साथ पहुँचने के "ध्येय"से कर रहे है चाहे लीडर कोई भी हो या प्रयास से सफलता मिले न मिले उनका लक्ष्य सिर्फ "श्रेय" पाना है चाहे लक्ष्य और प्रयास का हश्र जो भी हो।
उनकी नज़र में टीम का लक्ष्य उसके लिए किए जाने वाले प्रयास और उनसे मिलने वाली सफलता कोई मायने नही रखती,जब तक कि इन्हें हर कदम पर "दूल्हा" न बनाया जाए मतलब"श्रेय" न दिया जाए।वरना ऐसे लोग मुँह फुलाकर ये कहने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं "हमसे किसी ने कहा ही नही" कोई कहता तो हम भी कर देते।
वो ये भूल जाते है कि वो जिस पल टीम के सदस्य बने उसी पल से वो अकेले नही रहे बल्कि टीम का हिस्सा बन गए थे।
उनका "ध्येय" खुद प्रयास करना या बाकी सदस्यों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को सफल बनाने में योगदान देना होना चाहिए। न कि सिर्फ श्रेय लेने की लालसा रखना,वो क्यों भूल जाते हैं,कि अगर टीम ने सफलता प्राप्त की तो उसका श्रेय तो उन्हें मिलेगा ही।तो अगली बार जब भी टीम का हिस्सा बने तो आपका 'ध्येय' टीम को लक्ष्य तक पहुंचाना होना चाहिए,न कि 'श्रेय' लेने की कोशिश करना या कभी टीम बनाये तो साथियों का चुनाव अनुकूलता के आधार पर नही,बल्कि उनके गुणों और मेहनत कर सफल होने की भूंख के आधार पर करियेगा,मंज़िल पर आधी फतह तो आपको उसी पल मिल जाएगी।

Monday 4 June 2018

I AM "BUSY"

I AM "BUSY"
जग घुमाया पर इनके जैसा न कोए
"इज़ी" ज़िन्दगी को "बिज़ी" कहे,
न जाने किस भव सागर में खोए,
जग घुमाया पर इनके जैसा न कोए.....
काल खण्ड की हर बेला में हर पल,
काहे भैया मुँह बनाकर कर रोए,
समझ न आवे हमको अब ये,
दीन दुनिया के कोंन बोझ को ढोए,
जग घुमाया पर इनके जैसा न कोए.....
परिवार संग हंस न पावे खुल कर ,
फिर भी सेल्फी नौ-नौ मुँह बनाकर ले बिना मुँह धोये,
जग घुमाया पर इनके जैसा न कोए.....
देख नॉटंकी "बिजी-बिजी" की,
'संयोग' को खुद फोकट सा महसूस होए,
जग घुमाया पर इनके जैसा न कोए.....
ना जाने चकराघाट की चकरघिनि सो,
मानुस घनघोर भ्रमित काहे को होए,
जग घुमाया पर इनके जैसा न कोए.....
बात पाते एक है भैया,और दूजा न कोए,
जो काम करत है,सो आगे बढ़त है,
वो रहे "बिजी" पर "बिजी" न होए,
जो कहे "बिजी" पर हो न "बिजी",
और ढेला भर का काम करे न कोए,
तो ऐसे लोगन का बंटाढार निश्चित ही होए,
जग घुमाया पर इनके जैसा न कोए.....

Sunday 22 April 2018

आगाज़ करना होगा.......

आगाज़ करना होगा.......

कुछ पल रुक गया था मैं,
सफर में चलते चलते,
देखने ये कि कौन-कौन चल रहा है साथ मेरे दिल से,
रुक कर जाना कि अगर दिल मेरा है तो ,
धड़कन भी मुझे ही बनना होगा,
किसी पर ऐतबार से ज्यादा, 
जीत के जुनून को कायम रखना होगा,
रोकने से कब रुका था मैं,
भरोसा रब पर और उसकी इनायत पर रखना होगा,
कर लिया आराम बहुत ले ली है अंगड़ाई ,
अब आगे कूच करना होगा,
है इरादा गर मंज़िल पाने का ,
तो जंग का आगाज़ करना होगा।

Saturday 24 March 2018

"संवाद और संबंध"


"संवाद और संबंध"
आरम्भ करूं उसके पहले सारगर्बित सामान्य कथन - "वो क्या है जी की आजकल की generation ही ऐसी है, बच्चे आजकल बहुत smart हो गये है उन्हें कुछ बताना नही पड़ता है,या ज्यादा समझाने की ज़रूरत नही,बच्चे सब कर लेते हैं। या माहौल आजकल ऐसा है जी क्या करें?"
अक्सर देखता हूँ ,सुनता हूँ और महसूस भी किया है कि जैसे जैसे एक बच्चे की उम्र बढ़ना शुरू होती है ,मतलब जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है,वैसे-वैसे उसकी और उसके माता पिता के बीच होने वाला संवाद कम होता चला जाता है। कई बार माता-पिता ये कहते हुए भी पाए जाते है,कि उनका बेटा पता नही कहाँ गया होगा,अरे भाई होगा कहीं अपने दोस्तों के साथ, कब आता है,कब जाता है,पता ही नही चलता। कभी माता-पिता से गलती से भी पूंछ लो कि कौन से दोस्त है बच्चे के,तो पेरेंट्स को तो कई मौकों पर खुद भी पता नहीं होता कि आज कल उनके बच्चों के कौन से दोस्त है,उनके नाम क्या है,कहाँ रहते हैं,और क्या करते हैं?
पर गहराई से देखें तो क्या ऐसा हमेशा से था? याद कीजिये बचपन में जब भी आपका बच्चा स्कूल से आता था, सिर्फ आपके एक बार पूंछने पर की स्कूल कैसा रहा,क्या क्या किया आज,एक सांस में अपने दिनभर का व्योरा दे देता था।कि सुबह जाते वक़्त स्कूल बस में किसके साथ बैठा,क्लास में क्या-क्या पढ़ाया गया,क्या शब्बाशी मिली, क्या शैतानी करने पर punishment  मिली,lunch box किसके साथ share किया,क्या क्या games खेले सब कुछ,अपनी हर परेशानी, हर मांग,अपनी हर चिंता को आपके साथ बाँटता था।पर अचानक क्या हुआ कि सब कुछ बदल गया आज आपको उसका daily routine का ठीक से पता नही और न ही ये की उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है।
पर इस बात की ओर कम ही लोग ध्यान देते हैं और अगर दिया भी तो समस्या की जड़ तक कम ही लोग पहुंचते हैं। और अक्सर ये कहते हुए सुने जा सकते है कि "वो क्या है जी कि आजकल की generation ही ऐसी है, बच्चे आजकल बहुत smart हो गये है,उन्हें कुछ बताना नही पड़ता है,ज्यादा समझाने की ज़रूरत नही बच्चे सब कर लेते हैं। या माहौल आजकल ऐसा है जी क्या करें? ज्यादातर लोग पेड़ के न पनपने के लिए कभी बीज को ,कभी मौसम को,तो कभी मिट्टी को दोष देते है।असल बात ये है कि पेड़ को पनपने के लिए दिए जाने वाले लालन-पालन को भी समय के साथ बदलते रहना पड़ता है।जैसे कभी ज्यादा पानी,तो कभी सही खाद,तो कभी सही तापमान देना पड़ता है तभी जाकर वो सही पनपता है।ठीक उसी तरह आपको भी अपने बच्चों के साथ समय के साथ उनकी और अपनी उम्र के अनुसार अलग अलग व्यवहार करना चाहिए कभी बड़े बनकर तो कभी दोस्त बनकर आपसी जुड़ाव को और पक्की तरह से मजबूत करना चाहिए न कि कुछ बहानो की आड़ में बचपन में बोये गए प्यार,स्नेह और अपनेपन के बीज को खराब होने देना चाहिए।

Sunday 25 February 2018

"अमरूद का मौसम"

     
"अमरूद का मौसम"
अमरूद का फल किसे पसंद नही ?अगर ये सवाल किसी से भी पूंछो तो शायद ही कोई हो जो न कहे।कहने को तो अमरूद सिर्फ एक फल है । जो नाम के साथ-साथ स्वाद में भी लाजवाब है,पर शायद कभी-कभी एक अमरूद किसी के जीवनभर का बहुत बड़ा पल दे जाता है।ऐसी ही एक घटना याद आती है,जो दो लड़कियों के बीच घटी "ऋतु और शिवानी",दोनों ही शक्षम मध्यम वर्गीय परिवार से थी उम्र में कोई खास अंतर नही था दोनों अच्छी दोस्त थी और साथ ही पड़ोसी भी जो सोने पर सुहागा था।साल के सारे मौसम एक दूसरे ये एक दूसरे की पक्की सहेली थी,सिवाय एक मौसम के,वो था अमरूद का मौसम।बात कुछ यूं थी कि इन दोनों के घर के बीच अमरूद का पेड़ था,जिसपर मौसम आने पर खूब अमरूद आते थे ,इस पेड़ की जड़ शिवानी के घर में थी सो शिवानी खुद को इस पेड़ की मालकिन समझती थी और पूरी गुंडागर्दी के साथ अमरूद के एक-एक फल को अपना मानती थी।ऋतु के घर कोई कमी नही थी,घर में कई बार तो बाजार से टोकनी भरकर अमरूद आते थे,पर कहते है न मन पर किसका ज़ोर है वह कितने भी अच्छे अमरूद खा ले पर जब तक वह शिवानी के घर के पेड़ का अमरूद चख न ले उसे मज़ा नही आता था।बस यही बात इन दोनों के बीच अमरूद के मौसम में दोस्ती पर बर्फ जमा देती थी।कई बार तो नोबत लड़ाई और बोलचाल बंद होने तक पहुँच जाती।परिवार के बड़े समझाते पर ये दोनों न मानती।शिवानी पेड़ के एक एक अमरूद की गिनती रखती और ऋतु भी अपने घर की ओर आने वाली शाखा के अमरूद खाने के लिए कई बार छुपकर इंतज़ार करती,कि कब शिवानी की नज़रों से बचकर वह एक अमरूद खा ले।यह जीत उसके लिए किसी वर्ल्डकप से कम न थी।
ऐसी ही एक दोपहर वह छुपकर छत पर गई उसे पता चला कि शिवानी एक दिन के लिए किसी शादी में गई है, तो खुश होकर उस अमरूद को तोड़ने गई जो छत की सीढ़ियों से लगी डगार पर पक चुका था।शाखा थोड़ी ऊंची थी ऋतु ने काफी कोशिश की पर वो पहुंच नही पा रही थी।वह आपने कदम उछाल उछाल कर उस तक पहुचने की कोशिश कर रही थी। कि अचानक उसका पैर सीढ़ियों से फिसल गया और उसके पैर में मोच आ गई और दर्द से कराह रही थी। कुछ देर के बाद वो पलंग पर थी और आंखों में आंसू लिए रो रही थी। शाम को जब शिवानी घर लौटी तो उसे उसकी माँ से पता चला कि ऋतु का पैर मोच गया है और वह चल भी नही पा रही है। शिवानी को बहुत दुख हुआ वह तुरंत वही अमरूद अपने घर से तोड़कर हाथ में लिये ऋतु के घर गयी और सीधे उसके कमरे में पहुँची जहां ऋतु अभी भी दर्द के मारे उदास लेटी अपने पैर की पट्टी को देख रही थी।तभी शिवानी को देख चौक गई। शिवानी ने आगे बढ़कर अमरूद ऋतु के हांथों में रख दिया और बिना कुछ कहे ही दोनों एक दुसरे की सारे बातें समझ चुकी थीं। कहा तो सिर्फ इतना कि "यह लो तुम्हारे पेड़ का अमरूद"।
कई सालों से जो बर्फ इनकी दोस्ती पर अमरूद के मौसम में जम जाती थी,वह इस साल हमेशा के लिए पिघल चुकी थी,और दोनों सहेलियां अब हसीं मज़ाक़ कर रही थी।
समय बीता साल भी बीता अगले साल फिर "अमरूद का मौसम"आया अमरूद लगे,पर इस साल न शिवानी एक एक अमरूद गिन रही थी,न ऋतु छिपकर अमरूद तोड़ रही थी।क्योंकि अब वो पेड़ और उसके अमरूद दोनों के थे।

Wednesday 14 February 2018

क्या ये खता है मेरी.....

क्या ये खता है मेरी.....

क्या ये खता है मेरी.....
कि नियत मेरी सच्ची है,खुदा पर भरोसा रखता हूँ
क्या ये खता है मेरी.....
कि हर मुकाम को मेहनत और खुदा की रहमत से पाना चाहता हूँ
क्या ये खता है मेरी.....
कि देखे हैं कुछ छोटे छोटे सपने,
और रखता हूँ उन्हें पूरा करने की चाहत
क्या ये खता है मेरी.....
कि काम को सिर्फ काम नही
जुनून मानकर पूरा करता हूँ मैं
क्या ये खता है मेरी.....
कि ना जाने क्यों हर बात में
नफा नुकसान का हिसाब लगाते है लोग
ना हो रहा हो खुद का नफा या
न कर पा रहे हों किसी का नुकसान
तो अच्छे काम के लिए आगे भी नही आते है लोग
क्या ये खता है मेरी.....
बनाते है लोग नेक काम न करने के बहाने
छिपाते हैं कई लोग अपनी नाकाबिलियत और कमियां
करके बहाने कि बहुत व्यस्त हैं,मिलता नही हमें वक़्त है
पर मैंने ठाना है,साथ दे या न दे कोई मेरा,
गर रहमत है खुदा की मुझ पर
तो कर लूंगा हर मुश्किल को पार
मुझे पाना है हर मंज़िल हर मुकाम हर बार
ना थकूंगा न रुकूंगा न मानूंगा हार
अगर है इरादा ये मेरा
तो क्या ये खता है मेरी.....