Sunday 31 July 2016

सवाल खुद से और सब से.............

सवाल खुद से और सब से.............

कल मेरी मुलाकात एक सज्जन से हुई वैसे तो वो मेरे ही सहकर्मी हैं,लेकिन डिपार्टमेंट अलग अलग होने के कारण कभी उनसे ज्यादा बातचीत नहीं होती थी,सामान्य नमस्कार से आगे कुछ नहीं.पर पिछले कुछ समय से किसी प्रोजेक्ट पर उनके साथ काम करना हुआ तो कल जब लगातार काम करते-करते पॉवर कट हुआ,तो हम दोनों के पास एक दुसरे से बात करने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं था,क्योंकि वो मुझसे उम्र में काफी सीनियर है,सो मैंने बातचीत शुरू की मैंने उनसे पुछा आपकी शादी को तो काफी साल हो गए होंगे,तो कहने लगे हाँ सर बहुत साल हो गए,जब मैंने उनसे उनके परिवार के बारे में पुछा तो कहने लगे कि उनकी एक पत्नी और दो बच्चे हैं क्योंकि वो सज्जन एक पड़े लिखे इंजीनियर है और बड़ी ही शान से बताने लगे उनकी पत्नी भी एक इंजिनियर है,फिर मैंने बड़ी उत्सुकता भरे भाव से पुछा कि भाभी जी किस प्रोफेशन में हैं,उन्होंने खोकले पुरुषवादी सोच के तहत कहा कि अरे नहीं सर जी (वो मुझे सर कह कर बुलाते है क्योंकि उम्र में भले ही वो मुझ से बड़े हो पर मैं उनसे पोस्ट वाइज सीनियर हूँ),तो मुझसे कहने लगे की अरे नहीं सर जी वो कहाँ जॉब वोब करेगी उसके बसका नहीं है वो बस घर पर अपना काम करती है,मैंने कहा मैं कुछ समझा नहीं क्योंकि मुझे लगा की शायद वो फ्री लांसर की तरह घर पर से कोई ऑनलाइन काम करती होंगी. पर कहने लगे अरे नहीं वो घर के काम जैसे साफ़ साफाई,खाना बनाना बगैरह, मेरा और बच्चों का ख़याल रखती हैं बस यही तो उसका काम है और फ़र्ज़ भी. इस पर मैंने कहा की पर वो तो एक इंजीनियर हैं न तो इस पर आगे उन्होंने कहा कि वैसे भी औरतें घर के बहार कोई काम करें वो मुझे पसंद नहीं.ये सब सुनकर मुझे बहुत  बुरा लगा. पर क्योंकि मेरे उनसे कोई घनिष्ठ व्यवहार नहीं थे सो चुप रहा,पर इस कुछ देर की बातचीत ने मेरा उनके प्रति नजरिया बदल दिया,ये सोचकर दांग रह गया की इतना पड़ा लिखा आदमी एक ऐसी सोच के साथ अपने परिवार में अपनी पड़ी लिखी पत्नी के अरमानों को कुचल रहा है,यह बात कहाँ तक सही है की उनकी पत्नी नौकरी या कोई भी काम जो उन्हें समाज में अपना नाम और मुकाम बनाने में मदद कर सकता है करे या ना करे इस बात का फैसला क्या सिर्फ उन सज्जन को ही लेने का हक़ हैं की उनकी पत्नी  क्या करे क्या ना करे ,क्या ये उनकी पत्नी का हक़ नहीं की वो भी इस बात का फैसला ले सकें.

हम अपने घरों में ही जाने अनजाने में हमारी माँ,बहिन या पत्नी की काबिलियत को उनके गृह कार्य में दक्षता के आधार पर ही तौलते हैं और इस बात को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ करते हैं की वो क्या चाहती हैं उन्हें आसमान में उड़ने का मौका देने का काम करिए,ना की उनके पर कतरने का और उनकी सुरक्षा के नाम पर या घर की मान मर्यादा के नाम पर ,परंपरा के नाम पर उनके सपनो को ख़त्म करने का.

सवाल खुद से और सब से.............

सवाल खुद से और सब से.............

कल मेरी मुलाकात एक सज्जन से हुई वैसे तो वो मेरे ही सहकर्मी हैं,लेकिन डिपार्टमेंट अलग अलग होने के कारण कभी उनसे ज्यादा बातचीत नहीं होती थी,सामान्य नमस्कार से आगे कुछ नहीं.पर पिछले कुछ समय से किसी प्रोजेक्ट पर उनके साथ काम करना हुआ तो कल जब लगातार काम करते-करते पॉवर कट हुआ,तो हम दोनों के पास एक दुसरे से बात करने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं था,क्योंकि वो मुझसे उम्र में काफी सीनियर है,सो मैंने बातचीत शुरू की मैंने उनसे पुछा आपकी शादी को तो काफी साल हो गए होंगे,तो कहने लगे हाँ सर बहुत साल हो गए,जब मैंने उनसे उनके परिवार के बारे में पुछा तो कहने लगे कि उनकी एक पत्नी और दो बच्चे हैं क्योंकि वो सज्जन एक पड़े लिखे इंजीनियर है और बड़ी ही शान से बताने लगे उनकी पत्नी भी एक इंजिनियर है,फिर मैंने बड़ी उत्सुकता भरे भाव से पुछा कि भाभी जी किस प्रोफेशन में हैं,उन्होंने खोकले पुरुषवादी सोच के तहत कहा कि अरे नहीं सर जी (वो मुझे सर कह कर बुलाते है क्योंकि उम्र में भले ही वो मुझ से बड़े हो पर मैं उनसे पोस्ट वाइज सीनियर हूँ),तो मुझसे कहने लगे की अरे नहीं सर जी वो कहाँ जॉब वोब करेगी उसके बसका नहीं है वो बस घर पर अपना काम करती है,मैंने कहा मैं कुछ समझा नहीं क्योंकि मुझे लगा की शायद वो फ्री लांसर की तरह घर पर से कोई ऑनलाइन काम करती होंगी. पर कहने लगे अरे नहीं वो घर के काम जैसे साफ़ साफाई,खाना बनाना बगैरह, मेरा और बच्चों का ख़याल रखती हैं बस यही तो उसका काम है और फ़र्ज़ भी. इस पर मैंने कहा की पर वो तो एक इंजीनियर हैं न तो इस पर आगे उन्होंने कहा कि वैसे भी औरतें घर के बहार कोई काम करें वो मुझे पसंद नहीं.ये सब सुनकर मुझे बहुत  बुरा लगा. पर क्योंकि मेरे उनसे कोई घनिष्ठ व्यवहार नहीं थे सो चुप रहा,पर इस कुछ देर की बातचीत ने मेरा उनके प्रति नजरिया बदल दिया,ये सोचकर दांग रह गया की इतना पड़ा लिखा आदमी एक ऐसी सोच के साथ अपने परिवार में अपनी पड़ी लिखी पत्नी के अरमानों को कुचल रहा है,यह बात कहाँ तक सही है की उनकी पत्नी नौकरी या कोई भी काम जो उन्हें समाज में अपना नाम और मुकाम बनाने में मदद कर सकता है करे या ना करे इस बात का फैसला क्या सिर्फ उन सज्जन को ही लेने का हक़ हैं की उनकी पत्नी  क्या करे क्या ना करे ,क्या ये उनकी पत्नी का हक़ नहीं की वो भी इस बात का फैसला ले सकें.

हम अपने घरों में ही जाने अनजाने में हमारी माँ,बहिन या पत्नी की काबिलियत को उनके गृह कार्य में दक्षता के आधार पर ही तौलते हैं और इस बात को पूरी तरह से नज़र अंदाज़ करते हैं की वो क्या चाहती हैं उन्हें आसमान में उड़ने का मौका देने का काम करिए,ना की उनके पर कतरने का और उनकी सुरक्षा के नाम पर या घर की मान मर्यादा के नाम पर ,परंपरा के नाम पर उनके सपनो को ख़त्म करने का.

Monday 23 May 2016

“एक कदम........”

“एक कदम........”
कहते हैं कि किसी भी काम की शुरुआत एक छोटे से आईडिया से होती है,ऐसी ही एक छोटी सी बात या यूं कहें की घटना मेरे साथ भी घटित हुई, कुछ दिन पहले मैं अपने कुछ साथियों के साथ ऑफिस में बैठा किसी प्लान पर चर्चा कर रहा था,चर्चा पूरी होते-होते हम सब काफी थक चुके थे,सोचा क्यों न एक-एक प्याली चाय पी ली जाये,पास ही बनी चाय की गुमटी पर जब हम खड़े होकर बात कर रहे थे,वहां देखा की गुमटी पर काम करने वाला लड़का जिस कपडे से टेबल साफ़ कर रहा था,उसी कपडे से अपना तन भी ढँक रहा था,पूंछने पर कहने लगा भैया मेरे पर दूसरी कोई शर्ट ही नहीं है,तभी मैंने उसे कुछ पैसे देकर नयी शर्ट ले लेने को कहा,तभी बातों ही बातों में मेरे मुंह से अपने एक छोटे से सपने का जिक्र हो गया,कि कभी न कभी कहीं न कहीं इस व्यस्त ज़िन्दगी से थोडा सा समय निकल कर क्यों हम कुछ ऐसा काम करें जो किसी ज़रूरतमंद की मदद भी कर सके और किसी के हुनर को तराशने में मदद कर सकें,कभी कोई भी किसी हालत के सामने मजबूर होकर घुटने न टेके,बस यही सपना था जो मैं हमेशा से पूरा करना चाहता था लेकिन इस रोज़ की व्यस्त ज़िन्दगी से नहीं निकल पा रहा था,मुझे समय ही नहीं मिल रहा था,ऐसे ही खड़े खड़े जब मैंने ये विचार अपने बाकि साथियों के साथ साँझा किया तो उन्हें ये बात बहुत अच्छी लगी,उन लोगों ने सिर्फ एक बात कही अच्छे काम के लिए कभी का इंतज़ार क्यों करना,आज और अभी इस नेक काम की शुरुआत करते हैं, पर सवाल ये था की शुरुआत कैसे और कहाँ से करें,थोड़े से विचार-विमर्श के बाद तय हुआ क्यों न एक NGO रजिस्टर्ड किया जाये,जिसका उद्देश्य एक बार में बहुत बड़ा काम करके रुक जाने का नहीं बल्कि छोटी-छोटी कोशिशों से कुछ बेहद ही छोटी-सी मदद, छोटे छोटे बदलाव की लौ जलाना होगा
सोच तो अच्छी थी पर कहते है न,मंजिल की राह इतनी आसान नहीं होती,मुश्किलें हमेशा आपका रास्ता रोकने की कोशिश करती हैं,लेकिन मंजिल उन्हीं को मिलती हैं जो इन मुश्किलों की दीवार में खिड़कियाँ बना कर उम्मीदों के आसमान को देखने का हौंसला रखते हैं।
कई लोगों से जब ये आईडिया discuss किया तो उन्होंने कहा ये सब बेकार है,पर हम कहाँ सुनने वाले थे,हम तो बस आगे बढना चाहते थे,पर सबसे बड़ा सवाल हम सबके सामने ये था की हम अपने जॉब के टाइमिंग और busy schedule में से ngo के काम के लिए कैसे समय निकालेंगे,और तय ये हुआ की हम weekends पर ज्यादा और weekdays पर दो –दो के ग्रुप में काम करेंगे
और इस तरह आकार लिया हमारे ngo “प्रभव वेलफेयर सोसाइटी” ने जो हम कुछ साथियों के साथ शुरू हुआ,और कुछ ही समय में बहुत सारे लोगों का साथ और सहयोग पाकर परिवार बढता जा रहा है,मैं यहाँ अपने किसी भी साथी का नाम नहीं लेना चाहता,क्योंकि उससे ये बात कुछ लोगों के नाम तक सीमित हो जाएगी,मैं चाहता हूँ इसे पड़ने वाले हर उस व्यक्ति तक ये बात पहुंचे और वो भी छोटी सी कोशिशों की मदद से बदलाव की लहर ला सके

अभी “प्रभव वेलफेयर सोसाइटी” ने अपने सफ़र की शुरुआत पहले campaign “सिर्फ एक जोड़ी कपड़ा” से की है,जिसके तेहत हम लोगों के घरों से उनके पुराने कपडे लेते हैं और उन्हें ज़रूरतमंद लोगों तक पहुचाते हैं.ये बस एक कदम है लम्बे सफ़र पर चलने के लिए

Monday 25 April 2016

अन्दर से सब खोखले हैं ?

अन्दर से सब खोखले हैं ?

रिश्तों में बढ़ती स्वार्थ की भावना उनके जीवन काल को कम करती जा रही है।
हम आज किसी से दोस्ती या जान पहचान बढ़ाते हैं,तो पहले ये देखते हैं कि वो व्यक्ति हमारे कितना काम आ सकता है,जैसे अमूमन शादी के आने वाले न्योतों में से हम आज कल उन आमंत्रणों को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं,जिनसे हमें ज्यादा फायेदा हो सकता है,बल्कि इस बात के कि कौन-सा व्यक्ति हमें ज्यादा प्यार,सम्मान और अपनेपन के साथ बुला रहा है।
कहते हैं कि दोस्ती इस दुनिया में सबसे गजब रिश्ता होता है,जोकि खून का न होकर भी खून से ज्यादा बढकर होता है,चाहे हमारे अपने हमारा साथ छोड़ दें पर दोस्त हमेशा हमारे साथ खड़ा होता है।पर ये बातें भी अब बीते ज़माने की हो गए हैं,और आज बेमानी लगती है,बचपन में हम अपने दोस्त या सबसे अच्छे दोस्त “best friend” के लिए कुछ भी कर सकने को हमेशा तैयार रहते थे,और वो दोस्त हमेशा हमारा  दोस्त ही रहता था,पर अब जब हम बड़े हो गए तो दोस्ती स्वार्थ में फसकर सिर्फ काम पड़ने पर जोर-शोर से जो सिर्फ जान पहचान होती है,वो दोस्ती का आवरण बनकर काम पूरा होने तक दिखती है और उसके बाद ख़त्म हो जाती है।आज कल दोस्ती भी मोबाइल प्लान की तरह है,जो मार्केट में आता तो बड़े जोर शोर से है,पर कब पतझड़ के मौसम की तरह चला जाता है पता ही नही चलता।

आज कल दोस्त साल के मौसम की तरह बदलते हैं,आज गर्मी है तो कूलर की ज़रूरत की तरह,बरसात है तो छाते की तरह,और ठण्ड है तो किसी कम्बल की तरह,ज़रूरत के हिसाब से दोस्ती की प्राथमिकता और परिभाषा बदलती रहती है।आप ही याद कर लीजिये की आप जब हर रोज़ किसी से मिलते हैं तो मुस्कुरा कर हाँथ मिलाते हैं पर वो मुस्कराहट आपके चेहरे पर कितनी देर रहती है या उससे मिलने की ख़ुशी क्या आपको वाकई दिली तौर पर हुई थी या वो मुस्कराहट जो आपके चेहरे पर उससे मिलते समय आई थी उस व्यक्ति के सामने से हटते ही गायब हो जाती है।ये कुछ ऐसी चीजें हैं,जो रोज़ हमारे साथ होती हैं,पर हम सब इससे अनजान बनकर रह रहे हैं इस बीमारी से दिन-ब-दिन घिरते जा रहे हैं,पर इलाज़ क्या है इसको ढूंढने की कोशिश नहीं कर रहे हैं,हर रोज़ सिर्फ रिश्तों में मिठास दिखाने के लिए शेकरीन तो डाल रहे हैं पर ये भूल जाते हैं कि असली मिठास जो अपनेपन की शक्कर से आती है वह किसी और चीज़ से नहीं आ सकती।पल भर के दिखावे की मिठास सिर्फ रिश्तों में कडवाहट को बढावा देती है, दिल की आत्मीयता से बने रिश्ते ता-ज़िन्दगी खुशियों के पल बनकर सुकून देते रहते हैं।बस ज़रूरत है,रिश्तों को दिखावे की जगह दिल से अपनाने की।

Thursday 31 March 2016

सवाल-ज़िंदगी 50:50!!!

            सवाल-ज़िंदगी 50:50!!!

अक्सर हम देखते हैं कि हमारी ज़िंदगी सवाल पूछते-पूछते ही निकाल जाती है,जैसे मैं परीक्षा में पास हो पाऊँगा या नहीं, ये हो गया तो मेरी नौकरी कब लगेगी?,नौकरी लग गई तो मेरी शादी कब होगी ?,उसके बाद मेरे बच्चे उनकी पड़ाई और उनका भविष्य कैसा होगा ?, मेरा रिटायरमेंट के बाद बुड़ापा कैसा कटेगा??? वगैरह-वगैरह,एक जिंदगी और इतने सारे सवाल बाप-रे-बाप,और अगर इसे पड़ने वाले आप अगर ये सोचकर मुस्कुरा रहे हों कि हम तो भाई इस बिरादरी में नहीं आते तो आप गलत हैं, ज़रा पिछले कुछ दिनों की अपनी दिनचर्या को याद कर लीजिएगा आप भी इस गाड़ी की सवारी कर रहे होंगे कि अरे ये कैसे होगा,वो कैसे होगा, जैसे सवालों से घिरे होंगे।
औसतन एक व्यक्ति अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा किसी काम को करने में कम और उसके बारे में सोचने में ज्यादा बर्बाद कर देता है,जबकि कोई भी सवाल हो, चाहे वो कितना भी गंभीर हो क्यों न हो उसका जवाब ढूंड्ना उतना ही आसान है,ऊपर लिखे सवाल हर किसी के जीवन का एहम हिस्सा बनकर कभी न कभी सामने आते हैं,पर इन सवालों को लेकर चिंताग्रस्त रहने से अच्छा है ज्यादा मेहनत इस बात पर ज़ोर देकर की जाए की इसका हल क्या है, कहते हैं सवाल पूछना बहुत आसान काम होता है क्योंकि हर एक वाक्य के बाद आपको सिर्फ एक “?” प्रश्नवाचक चिन्ह ही तो लगाना है,पर मंज़िलें उन को मिलती हैं, जो हर एक वाक्य के बाद लगने वाले प्रश्नवाचक चिन्ह को “.” मतलब पूर्णविराम में  बदल कर उसका हल निकाल दें
सवाल और जवाब ज़िंदगी नाम के सिक्के के दो पहलू की तरह हैं,अब ये हम पर मतलब सिक्का उच्छालने वाले पर निर्भर करता है,की वो ज़िंदगी को सिक्के के किस पहलू पर रखकर उछालता है।

सोचना हमें है कि ज़िंदगी भर सिर्फ सवाल पूछते रहना हैं या उन सवालों के जवाब निकाल कर आगे भी बढ़ना है।  

Saturday 26 March 2016

“गुड़िया- एक कहानी अपनी सी”

“गुड़िया- एक कहानी अपनी सी”

ये बात कुछ साल पुरानी है,सुनने में ये सामान्य सी घटना है लेकिन किसी की ज़िंदगी के कुछ पल उसकी सारे सफर की दिशा और दशा तय कर देते हैं और ऐसी घटनाएँ हमारे आस-पास अक्सर होती भी रहती हैं,पर शायद हमारा ध्यान इन पर इतना ज्यादा नहीं जाता,ऐसी ही एक घटना ने मुझे अंदर तक झक-झोर कर तो रख ही दिया बल्कि मेरे लिए एक प्रेरणा पुंज भी बन गयी।
इस बात की शुरुआत होती है कुछ साल पहले हमारे पड़ोसी के परिवार से जहां श्री मिश्राजी,उनकी धर्म-पत्नी और दो बच्चे रहते थे, एक बेटा और एक बेटी,जीवन सामान्य मध्यम वर्गीय परिवार की तरह चलता था,जहां संसाधन सारे थे और जरूरतों को पूरा करने के लिए किसी चीज की कमी नहीं थी,उनका बेटा मनीष उनकी बेटी “गुड़िया” से 3 साल बड़ा था,और दोनों भाई-बहन एक ही स्कूल में पड़ते थे,और यहाँ अगर आप ये सोच रहे हों कि उनके घर में बेटे और बेटी में कोई भेद-भाव किया जाता था तो आप गलत सोच रहे हैं,उनके घर में ऐसा कुछ नहीं था पर हाँ “इंसान कोयले की कोठरी में कितना भी बचकर रहे थोड़ा बहुत कालिख लग ही जाती है”, गुड़िया पड़ने में बेहद होशियार थी,अपने भाई से तेज और हमेशा अपनी क्लास में अव्वल आया करती थी और पेंटिंग भी बहुत बड़िया किया करती थी उसके टीचर कहा करते थे कि अगर गुड़िया को सही दिशा दे दी जाए तो वह बहुत अच्छी पेंटर बन सकती है, श्रीमती मिश्रा यूं तो अपनी बिटिया गुड़िया को बहुत प्यार करती थी लेकिन जब गुड़िया 5वी क्लास में आई तो उन्हें ये लगने लगा कि गुड़िया “एक लड़की है” जो की समान्यतः लड़के-लड़की में अंतर करते समय आ ही जाता है, और उसे घर के कामों में ज्यादा ध्यान देना चाहिए,उसका भाई घर के काम करे न करे पर गुड़िया का ये जन्म- सीध फर्ज़ बनता है,और उसे इसे पूरा करना चाहिए चाहे कोई भी नुकसान हो जाए।
घर के काम सीखना और सिखाना गलत नहीं था, क्योंकि शुरुआत में श्रीमती  मिश्रा के लिए गुड़िया से घर के काम कराना उतनी प्राथमिकता पर नहीं था,पर जैसे-जैसे समय बीतता गया श्रीमती मिश्रा के लिए गुड़िया की पढ़ाई और उसकी पेंटिंग दूसरे नंबर पर और घर के काम गुड़िया से करवाना प्राथमिकता बनती जा रही थी,जिसका नतीजा ये होने लगा की गुड़िया अब पढ़ाई में पिछड्ती जा रही थी अब वह क्लास में अव्वल न होकर सिर्फ औसत अंकों से पास हो रही थी, और उसके हांथों से पेंटिंग ब्रुश और पेंटिंग से रंग जैसे मानो उड़ से ही गए थे,इस मानसिक दवाव का असर उसके स्वभाव पर भी दिख रहा था अब गुड़िया पहले की तरह फूल से खिली नहीं रहती थी हमेशा आत्मकुंठा में बुझी-बुझी सी रहने लगी थी,समय का पहिया ऐसे ही चलता जा रहा था और देखते ही देखते गुड़िया 10वी बोर्ड कक्षा में आ गयी, पर श्रीमती मिश्रा को इस बात की कोई फिकर न थी कि गुड़िया को अपनी पढ़ाई के लिए सारे संसाधन मिलें और भरपूर समय भी दिया जाए,और अच्छे परिणाम लाने के लिए उसे प्रोत्साहित किया जाए,इसके उलट वो अब गुड़िया को नए नए चाइनीज पकवान बनाने की कला सीखने का दवाव “बना रही थी, और हमेशा एक वाक्य के साथ अपनी बात पूरी करती थी “ससुराल जाएगी तो क्या नाक कटाएगी?” जिसका नतीजा गुड़िया के 10वी बोर्ड के परिणाम में दिखा और बचपन से सभी विषयों में मेधावी गुड़िया को एक विषय में फ़ेल होना पड़ा।
श्रीमती मिश्रा को इस बात का कोई मलाल नहीं था और उन्होने इसका कारण भी तलाशने की कोई कोशिश नहीं की, कि उनकी गुड़िया जो की बचपन से सभी विषयों में इतनी होशियार थी अचानक वही विषय उसकी कमजोरी कैसे बन गए,वो तो बस गुड़िया को ही दोषी ठहराने में लगी थी और उसे ये कहकर कि तुम पढ़ाई में कमजोर हो इसीलिए स्कूल जाना कम करो और आगे की पढ़ाई घर से ही करनी होगी। मन मार कर गुड़िया ने ये फैसला स्वीकार कर लिया।
लेकिन कहते हैं न कि “पानी अपना रास्ता खुद ही बना लेता है”,और ठीक उसी तरह गुड़िया की किस्मत ने मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता ढूंढ लिया,उसे एक और मौका दिया श्रीमती मिश्रा की एक रिश्तेदार जो उनकी बुआ लगती थी,बीमार पड़ी तो श्रीमती मिश्रा ने अपनी ट्रेनिंग जो की वो गुड़िया को इतने साल से दे रही थी अपने रिशतेदारों के सामने प्रदर्शित करने के लिए गुड़िया को कुछ दिनों के लिए उनके यहाँ रहने भेज दिया और कहा कि स्कूल भी वहाँ से पास है वहीं से स्कूल भी चले जाना,गुड़िया वहाँ जब गई तो घर के काम तो उसे करना पड़ रहा था पर मानसिक रूप से स्वतंत्र होकर पढ़ाई करने के मौके उसे ज्यादा मिल रहे थे,जिनका उपयोग गुड़िया बहुत बेहतर तरीके से कर रही थी, और नतीजा पहले तिमाही परीक्षा के परिणाम में ही दिख गया जो गुड़िया पिछले कुछ सालों में औसत अंको से सिर्फ पास हो रही थी वह इस बार अपनी क्लास के टॉप 3 बच्चों में आई थी। इस छोटी-सी जीत ने गुड़िया में वही पुराना आत्म-विश्वास भर दिया था,गुड़िया की बुआ उसकी प्रतिभा जानती थी,और श्रीमती  मिश्रा के स्वभाव को भी इसीलिए जब उनकी तबीयत ठीक होने लगी और जब श्रीमती मिश्रा अपनी बेटी गुड़िया को वापस बुलाना चाह रही थी,तब उसकी बुआ ने उसे बहाने से रोक लिया,ताकि उसकी फड़ाई मे कोई ख़लल न पड़े और गुड़िया को पढ़ाई के लिए समय और बेहतर संसाधन उपलब्ध कराये, जिसकी वजह से गुड़िया अपनी 12 वी बोर्ड की परीक्षा में पूरे जिले में प्रथम स्थान पर आई।
और गुड़िया उसके इस परिणाम से आत्मविश्वास से भर गयी, उसके चेहरे पर वही  पुरानी खुशी लौट आई थी और उसने जीवन में कभी भी हार न मानने और खूब मेहनत करने की ठान ली,जिसके बलबूते वह आज एक सफल चार्टर्ड अकाउंटेंट है,और अब उसकी माँ श्रीमति मिश्रा उसे ये नहीं कह पाती कि “ससुराल जाएगी तो क्या नाक कटाएगी?” उल्टा परिवार और समाज के लोग ही श्रीमति मिश्रा को  बधाई भरे स्वर में कह जाते हैं कि गुड़िया जिस भी परिवार में जाएगी “मायके वालों का खूब मान बड़ाएगी
इस वाकिए ने श्रीमति मिश्रा को इस बात का एहसास कराया कि वो खुद एक महिला होते हुए भी अपनी बेटी गुड़िया के रूप में महिलाओं को बराबरी का दर्जा और मौका नहीं दे रही थी,और कहीं न कहीं उनके अरमानों और तमन्नाओं को दबा रही थी।इस एहसास के बाद अब वो गुड़िया के अरमानों को दबाती नहीं बल्कि उसके साथ उन्हें पूरा करने के लिए खुद भी खुशियों के पंख लगाकर उड़ने का मन रखती हैं।
और हमारी गुड़िया जो अब चार्टर्ड अकाउंटेंट बन गयी है,अपने जीवन के अकाउंट को दुरुस्त रखने के साथ साथ दूसरों के पैसों और बहीखातों का भी हिसाब रखने में मदद करती है।



                                                         

Thursday 11 February 2016

चीजें,जगह और रिश्ते तीनों “EXPIRE” ज़रूर होते हैं।

चीजें,जगह और रिश्ते तीनों “expire” ज़रूर होते हैं।
कभी जीवन में ये महसूस किया है कि किसी रिश्तेदार से ,या दोस्त से आपके संबंध अब उतने ताज़गी नहीं देते जितने पहले देते थे,या कह सकते हैं कि अब बास मरने लगे हैं,फिर भी हम उन्हें निभाए जा रहे हैं।
वो भी सिर्फ इसलिए कि पुराने संबंध हैं,सच यही है कि न ही अब हमें उनसे मिलने में मज़ा आता है,और न हमें उसमें प्रसन्नता का अनुभव होता है।
कभी किसी समान का उपयोग करते-करते ऐसा लगा है,कि अब यह उतनी काम की चीज़ नहीं रह गई है जितनी पहले थी,या वक़्त के साथ इसकी उपयोगिता कम या ख़त्म हो गई है, पर फिर भी हम उसे चलाये जा रहे हैं। जैसे पुराने स्कूटर जिसके कल-पुर्जे वक़्त के साथ घिस चुके हैं,और पेट्रोल की भी वो ज्यादा खपत कर रहा है। फिर भी हम सिर्फ इसीलिए उसे उपयोग कर रहे है,क्योंकि वो शायद हमारी पहली कमाई का था या हमारे पिताजी की निशानी है।
जब आप रोज़ काम पर निकलते हैं,तो क्या आप खुशी के साथ दिन की शुरुआत करते हैं? या सिर्फ ये सोचकर दिन का आगाज होता है कि “चलो रोज़ की तरह दिन शुरू हो रहा है और बीतते दिनों की तरह ये दिन भी कट जाएगा” आप जिस परिवेश या माहौल में रह रहे हैं। चाहे वो आपका शहर हो,नौकरी या कंपनी हो समय के साथ कुछ नया करने का या आगे बढ़ने के अवसर नहीं देती तो समझ जाइए कि “it’s time to move on” मतलब आगे बढ़ने का समय आ गया है। मतलब हमें जगह,शहर या नौकरी बदल लेनी चाहिए।अक्सर देखा गया है,कि लोग एक ही नौकरी से सिर्फ इसीलिए चिपके रहते हैं,भावनात्मक रूप से क्योंकि “ये मेरी पहली नौकरी थी”  जबकि अब वो नौकरी उन्हें वो खुशी नहीं दे रही है,जो कि कुछ साल पहले दे रही थी वो ये भूल जाते हैं, कि वक़्त बदलता है तो उपयोगिता भी बादल जाती है,जैसे शायद अब आपकी काबिलियत बढ़ गयी हो और वो जॉब अब आपके उतनी लायक नहीं जितनी तब कभी थी जब आप “FRESHERथे,या फिर मैनेजमेंट का या बॉस का व्यवहार आपके लिए अब चिड़चिड़ा सा हो गया है,फिर भी आप उनसे भावनात्मक रूप से जुड़े हैं जबकि अब उन्हें आपकी उतनी ज़रूरत नहीं है।
कहीं मैंने पड़ा था कि माता-पिता द्वारा बच्चों के लालन-पालन के सिद्धान्त में भी साफ कहा गया है। कि  बच्चों के साथ शुरुआत कि उम्र के 7-8 साल प्यार से, 8 से 15 साल तक कठोर अनुशासन से और 15 वर्ष के बाद मित्रवत व्यवहार रखना चाहिए। मतलब समय के साथ माता-पिता को भी बच्चों के साथ अपने प्रेम और रिश्ते की  गांठ में मिठास का अनुपात बदलते रहना चाहिए।
मैं यहाँ स्वार्थी होने की बात नहीं कर रहा हूँ, कि काम निकाल जाए तो हम भुला दें।  किसी से भी चाहे मित्र हों,संबंधी हों,जगह हो,शहर हो या नौकरी हो, लगाव होना आवश्यक है तभी आप उस रिश्ते को निभा पाएंगे या आनंद ले पाएंगे। लेकिन रिश्तों में ज़रूरत से ज्यादा लगाव या emotional foolishness” जीवन में बासापन या घुटन को जन्म देने लगता है।
जैसे ऊपर दिया पुराने स्कूटर का उदाहरण हो,घर या शहर से अतिरिक्त लगाव आपकी प्रसन्नता और तरक्की दोनों के लिए हानिकारक लगाव है। तो मीठी यादों को दिलों में,मन में बसा के रखिए और हमेशा जीवन मे आगे बढ़ते रहिए,उन्हें जीवन परियंत रोज़ ढोने कि क्या ज़रूरत है?
किसी ने क्या खूब कहा है- “कि सफलता कमज़ोर दिल वालों के लिए नहीं होती है,उसे पाने के लिए आपको अपने COMFORT ZONE से बाहर निकलना ही पड़ेगा”।
इसीलिए हमेशा याद रखे “रिश्ते,जगह और चीजें” समय के साथ EXPIRE ज़रूर होती हैं। इनसे जबरन चिपके रहना जीवन से खुशियाँ और तरक्की दोनों को ख़त्म कर देती है।     

Saturday 23 January 2016

“मम्मी-पापा हमारे साथ रहते हैं???”

“मम्मी-पापा हमारे साथ रहते हैं???”

आज सुबह-सुबह सैर पर निकला तो हमेशा की तरह पार्क के तीन चक्कर लगा लेने के बादजब घर वापस लौट रहा था,तो मेरे बहुत पुराने परिचित मित्र मिल गए,सामान्य हाय-हैलो के बाद घर परिवार,पत्नी और बच्चों के बारे में बात होने लगी,बातों ही बातों में मैंने जब उनके माता-पिता के हाल-चाल पूछे तो कहने लगे कि-“हाँ मम्मी-पापा आजकल हमारे साथ ही रहते हैं”। वो इतना कहकर चले गए,मैं भी अपने घर लौटने लगा पर उनके कहे इन चंद शब्दों को मैं भुला नहीं पाया,इन शब्दों ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।
वैसे तो ये वाक्य हमारे समाज की बातचीत का एक सामान्य अंग है। लेकिन ज़रा सोच कर देखिये कि  कभी आपके या किसी के भी माँ-बाप ने अपने छोटे बच्चों के लिए ये कहते हुए सुना हैं-“कि हाँ बच्चे हमारे साथ ही रहते हैं?” तो फिर हम बच्चे जब बड़े हो जाते हैं,तो क्यों हम अपने माँ-बाप को बोझ समझ कर ये कह देते हैं कि “मम्मी-पापा हमारे साथ रहते हैं?”
टेक्नोलोजी के इस युग में कहते हैं कि “internet एक ऐसा जरिया है जहां पर सारी जानकारी सिर्फ एक क्लिक पर उपलब्ध हो जाती है। लेकिन हम ये भूल जाते हैं,कि हमारे माता–पिता भी किसी internet या Wikipedia से कम नहीं होते हैं उनके पास भले ही technology, geography, science या history की सारी जानकारी न हो। पर उनके पास सांसारिक और सामाजिक व्यवहार,आचार,विचार और संस्कार  की खान होती है।जो आपके और आपके परिवार की आने वाली पीड़ी को मुफ्त में जानकारी उपलब्ध करा कर जीवन के मुश्किल रास्तों को कैसे तय करना और उस में होने वाले नुकसान और खतरों से आगाह कर देते हैं।
हम चाहे कितने भी बड़े गुणवान और धनवान क्यों न बन जाएँ,लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए की हमारे माता-पिता किसी पेड़ की तरह होते हैं और हम बच्चे उस पेड़ की एक शाखा हैं,और उस शाखा की उन्नति और हरियाली तभी तक है,जब तक वो अपने पेड़ से जुड़ी है,आज तक पेड़ से अलग होकर कोई भी शाखा फल-फूल नहीं पाई है। क्योंकि यही प्रकृति का सिद्धान्त है,कि शाखा को पोषण पेड़ के तने से मिलता है,न कि शाखा कभी किसी पेड़ को पोषण देती है।
ठीक उसी तरह मनुष्य जीवन का भी सिद्धान्त है,”हम बच्चों की पहचान हमारे माता-पिता की मदद से बनी,उनके आशीर्वाद और दुआओं से हमारे जीवन में तरक्की की हरियाली है”।  
भले ही आज वो उम्र की ढलान पर शारीरिक रूप से हमारा उतना साथ न दे पा रहे हों,लेकिन आज भी उनके आशीर्वाद हमें सींच रहे हैं और अनुभव हमें सदा पोषित कर रहे हैं।

इसीलिए आप कभी ये मत कहिएगा कि माता-पिता किसी बोझ कि तरह “हमारे साथ रहते हैं” पर इसकी जगह हमेशा मुस्कुराकर कहिए और मानिए कि “आप आज भी उनके ममता और आशीर्वाद की छाँव में  उनके साथ रहते हैं”।