उपहार... !
वो कहते हैं न,अथिति देवो भवः,हमारे CULTURE में एक दिलचस्ब सा रिवाज़ है,जब भी कभी किसी के घर पर मेहमान बनकर जाते है,या हमारे घर पर मेहमान के तौर पर आते हैं,तो मेजमान मेहमान की आव भगत बड़ी ही धूम धाम से करता है,,हर घर में आने वाले मेहमान का स्वागत सत्कार कुछ से तरह किया जाता है,जैसे कोई उत्सव हो,कुछ इस तरह ही तो पकवान बनते है, घर में ख़ुशी का माहौल होता है,पिछले दिनों हमारे पडोसी के घर पर कुछ मेहमानों का आना हुआ,मैं भी अपने घर के बाहर खड़ा ठण्ड के मौसम में धुप का आनंद ले रहा था और साथ ही हमारे भी पड़ोसियों से सम्बन्ध काफी प्रगांढ़ होने की वजह से उन्होंने उनके घर आये हुए मेहमानों से हमारा भी तार्रुफ़ करवाया गया,कुछ देर रूककर वो मेहमान जब विदा ले रहे थे,तो मैं भी उस समय बालकनी में बैठा अखबार पढ़ रहा था,तभी मुझे उन लोगों के बीच किसी बात पर सहमति और असहमति के वार्तालाप होने का एहसास हुआ,लगा की जैसे किसी बात पर ARGUMENT चल रही है सो मेरा ध्यान अनायास ही उन लोगों की तरफ चला गया,वैसे एक बात कहूँ हमारे यहां एक अच्छा पडोसी होने के लिए एक गुण होना अति आवश्यक होता है,की पडोसी के घर में क्या चल रहा है,इस के बारे में हर व्यक्ति को जानकारी खुद के घर में क्या चल रहा है से ज्यादा होती है,मतलब ताका-झांकी में निपुणता अत्यंत की आवश्यक गुण है,एक अच्छे पडोसी में,क्या हुज़ूर ? कहीं इस लाइन को पड़ते हुए आपको अपना पडोसी तो याद नहीं आने लगा खैर ईमानदारी से कहूँ मेरी यहां ऐसी कोई नियत नहीं थी,वो तो उन सभी से मुझे थोड़ी देर पहली ही मिलवाया था,सो उन पर मेरा ध्यान चला गया,मैं यहां अपने शरीफ होने की कोई सफाई नहीं दे रहा हूँ,खैर छोड़िये कहाँ मेरा किस्सा शुरू कर रहा हूँ,जिनका आज जिक्र है उन्हीं के किस्से पर फोकस अर्थात रौशनी डालते हैं,जो मेहमान आये थे उनके साथ दो बच्चे भी थे,आमतौर पर हमारे समाज में एक प्रथा है की जब कभी भी हमारे घर पर कोई मेहमान आते हैं,तो कभी उन्हें खाली हाँथ विदा नहीं करते हैं,खासकर जब कभी कोई हमसे छोटा आये जैसे ये २ बच्चे तो इन्हे कोई न कोई उपहार जरूर दिया जाता रहा है,वक़्त के साथ स्वरुप बदलते रहते हैं,सो इस प्रथा का भी स्वरुप बदलता गया और आज कल कई लोग अपनी सुविधा अनुसार पैसे दे दिया करते हैं,सो मेरे पडोसी जिनके यहां वो मेहमान आये थे,उन्होंने भी उन् दोनों बच्चों को कुछ पैसे दिए जिन्हे इन बच्चों ने ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया,क्यूंकि बच्चे बहुत छोटी उम्र के थे,सो उनके माता पिता ने बच्चों से ये आग्रह किया की वो पैसे उन्हें दे दें,नहीं तो कहीं गिर जाएंगे पर बच्चों को लगा की पैसे उनके हैं और उनपर उनका ही हक़ है और उनके ही पास रहना चाहिए,इस वाद विवाद ने बड़ा रुप ले लिया और तैश में आकर पिता ने उन्हें डांट दिया,जिस पर प्रतिक्रिया देते हुये बच्चे ने भी रुआंसा सा मुँह बनाकर कहा आप हमेशा मेरे पैसे ले लेते है,वापस नहीं करते,इतना बोलने के बाद वहां पर शान्ति सी छ गयी थी हर कोई निरुत्तर सा रह गया था,पर यहां के घटनाक्रम को ज़रा नज़दीकी तौर पर देखने की जरूरत है,तो आइए साहबान ज़रा नज़दीक से दीदार करते है जो उस कुछ यहां घटा उस परत दर परत इस पूरे घटनाक्रम में पिता का सोचना भी सही था की बच्चे उम्र में बहुत छोटे है और छोटे बच्चे के पास इतने ज्यादा पैसे उचित नहीं है,अगर कहीं गिर गए तो बर्बाद हो जायेंगे या बच्चे ने उन पैसों का गलत उपयोग कर लिया तो उसकी आदतें बिगड़ सकती है,और बच्चों का सोचना भी सही था की ये रुपये उन्हें उपहार स्वरुप मिले हैं,तो वो उन्हें अपने पास रख सकते हैं,तो क्या इस समस्या की जड़ क्या हमारे पडोसी थे? जिन्होंने वो उपहार स्वरुप पैसे बच्चे को दिए थे,पर वो भी तो समाज का कायदा और अपना फर्ज ही तो निभा रहे थे जिसमें विदा होते समय बच्चों को उपहार स्वरुप कुछ दिया जाना चाहिए था,और उन्होंने वही तो किया,तो साहिबान सवाल उठता है कि तो इस सब में गलत कौन था या सही मायने ढूढ़ने की कोशिश करें तो सही सवाल होना चाहिए की गलत क्या था? क्या पडोसी का दिया गया उपहार गलत था ? न जी न, गलत था उनका उपहार के स्वरुप में बच्चे को पैसे देना वो भी इतने ज्यादा की जो उस बच्चे के कद,समझ और उम्र से कहीं ज्यादा और बड़ा था,तो अब बात आती है कि करें क्या? तो हाल भी समस्या की जड़ में होता है,उपहार दीजिये पर पैसे ही क्यों?ज़रा सा सोच कर देखिये क्या पैसे ही देना ज़रूरी था? क्या उपहार में पैसे के अलावा कुछ और नहीं दिया जा सकता था,जो उस बच्चे के उम्र और समझ के हिसाब से सही होता और उसके काम भी आ सकता,जिस की उपयोगिता उस बच्चे के दैनिक जीवन में होती,जैसे उसे पेन-पेंसिल का सेट उसे दिया जा सकता था,जो उसके बेहद काम की चीज है,कोई अच्छी सी किताब,किसी महापुरुष की जीवनी जिसे पढ़कर वो प्रेरित होते साथ ही चरित्र निर्माण भी करने में मददगार होता। उपहार देना महत्वपूर्ण है,पर उपहार में पैसे ही दिया जाना जरूर तो नहीं,उपहार के महत्त्व को पैसों में तोलना कहीं न कहीं अनैतिक है और उचित भी नहीं,उपहार प्रेम और आशीर्वाद स्वरुप दिए जाते हैं,पैसे मतलब धन स्वरुप नहीं, तो हमेशा उपहार को पैसों के साथ नहीं प्रेम भावना स्वरुप रखना चाहिए,कई बार इस तरह के रिवाज़ मेज़वान को भी आर्थिक बोझ में दबा देते है और यदि उनका आर्थिक सामर्थ्य उन्हें इस बात के लिए साथ नहीं दे पाती तो कई बार खुद,रिश्तेदार और मित्रों के सामने शर्मिंदगी का अनुभवों से भी दो चार करवाती है तो अगली बार जब भी किसी मेहमान को विदा करते है तो उसे उपहार में कुछ ऐसा दें जो उसके काम में आये और आपके प्रेम से ओत-प्रोत भावना को भी परभाषित कर सके और साथ ही जब भी आप कहीं मेहमान बनकर जाएँ तो विदा लेते समय ऐसे पैसों के लेन-देन वाले व्यवहार से बचे । तो अब से उपहार में पैसे नही प्यार बांटिए।
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