Tuesday 12 June 2018

"ध्येय ya श्रेय"


          "ध्येय yaश्रेय"


ये दो शब्द जिनके मायने तो बहुत जुदा है,पर अगर देखा जाए तो ये बहुत हद तक किसी के तररक्की की राह कैसी होगी और कहां तक जाएगी ये तय कर सकते हैं।एक टीम जब बनती है तो ज्यादातर लोग एक गलती करते हैं वो ये की वे अपनी टीम के सदस्यों का चुनाव उनके गुणों के आधार पर या सफल होने की भूख को देखकर नही बल्कि अपनी अनुकूलता के आधार पर करते है।जहां कई बार ऐसी टीम का भविष्य और उसकी सफलता का दृश्य निर्भर सिर्फ इस बात पर करता है कि वह टीम जिस लक्ष्य को पाने का सपना देख रही है उस तक पहुंचने के लिए होने वाले या किये जाने वाले प्रयासों में टीम के लोगों का बर्ताव कैसा है क्योंकि यहां प्रयास सफल होंगे या नही वो इस सिर्फ इस बात पर निर्भर नहीं करते की प्रयास सही दिशा में हो रहा है या कितना किया जा रहा है।साथ साथ इस बात पर भी निर्भर करता है कि टीम के सदस्यों की अपेक्षा कैसी और काम के प्रति व्यवहार कैसा है क्या वो हर प्रयास को लक्ष्य तक सफलता के साथ पहुँचने के "ध्येय"से कर रहे है चाहे लीडर कोई भी हो या प्रयास से सफलता मिले न मिले उनका लक्ष्य सिर्फ "श्रेय" पाना है चाहे लक्ष्य और प्रयास का हश्र जो भी हो।
उनकी नज़र में टीम का लक्ष्य उसके लिए किए जाने वाले प्रयास और उनसे मिलने वाली सफलता कोई मायने नही रखती,जब तक कि इन्हें हर कदम पर "दूल्हा" न बनाया जाए मतलब"श्रेय" न दिया जाए।वरना ऐसे लोग मुँह फुलाकर ये कहने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं "हमसे किसी ने कहा ही नही" कोई कहता तो हम भी कर देते।
वो ये भूल जाते है कि वो जिस पल टीम के सदस्य बने उसी पल से वो अकेले नही रहे बल्कि टीम का हिस्सा बन गए थे।
उनका "ध्येय" खुद प्रयास करना या बाकी सदस्यों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को सफल बनाने में योगदान देना होना चाहिए। न कि सिर्फ श्रेय लेने की लालसा रखना,वो क्यों भूल जाते हैं,कि अगर टीम ने सफलता प्राप्त की तो उसका श्रेय तो उन्हें मिलेगा ही।तो अगली बार जब भी टीम का हिस्सा बने तो आपका 'ध्येय' टीम को लक्ष्य तक पहुंचाना होना चाहिए,न कि 'श्रेय' लेने की कोशिश करना या कभी टीम बनाये तो साथियों का चुनाव अनुकूलता के आधार पर नही,बल्कि उनके गुणों और मेहनत कर सफल होने की भूंख के आधार पर करियेगा,मंज़िल पर आधी फतह तो आपको उसी पल मिल जाएगी।

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